भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
दशावतार
धर्माभिमान बढने पर धर्म भी आसुरता का आश्रय बन जाता है और उससे परस्वापहरण होने लगता है। तब सृष्टि के संचालन को हस्तक्षेप करना पड़ता है। बलि धर्मात्मा थे, दानी थे, विनयी थे। धर्म पर स्थित व्यक्ति के साथ ईश्वर भी बल प्रयोग नहीं करता। भगवान भी उनके सामने वामन बनकर आता है और याचना ही करता है। बलि के अहं ने उन्हें बन्धन का पात्र बनाया और वामन ने विराट बनकर सूचित किया कि धर्म का-धर्मात्मा का सम्मान वामन को विराट बना देता है। बालक खिलौनों से खेल रहा था और वह भी भाई के बलपूर्वक छीने खिलौनों से। माता ने उसे पुचकारा, वहलाकर खिलौने लेकर धर दिये भाई को खेललेने दे! तुझे कुछ देर बाद दे दूंगी और बच्चे को गोद में बैठा लिया। माता में यह वात्सल्य जगा था या निष्ठुरता? बलि का कोई धर्म उन्हें न भगवद्भक्ति दे सकता था, न श्रीहरि का सान्निध्य। धर्म का फल भगवान नहीं है। उन करुणासिन्धु ने बलि का दोष उनका अहं नष्ट किया, भक्ति दी। बलि के द्वारपाल बने और लिया क्या? जो स्वर्ग बलि से लिया- वह तो बलि को मन्वन्तर में स्वयं देने वाले हैं। इस वैवस्वत मन्वन्तर से पूर्व चाक्षुष मन्वन्तर के अन्त में जल- होने पर मत्स्यावतार हुआ। यह अवतार सृष्टि के प्राणि-पदार्थों का बीज तथा मनु एवं सप्तर्षियों को सुरक्षित रखने के लिए तथा वेदोद्धार के लिए हुआ था। इतनी ही कथा है संक्षिप्त रूप में। भगवान परशुराम का अवतार आवेशावतार है। मूलरूप में वे कारक पुरुष हैं- ऋषि है और भगवान कल्कि का अवतार होने पर उन्हें अस्त्र-शिक्षा देगें। आवेश तो परशुराम में सृष्टि के संचालक का हुआ था भूभार हरण के लिए। भूभाग उन सर्वेश्वर को छोड़कर दूर कौन कर सकता है। जब सत्ता-भूमि पर भार बढ़ जाता हैं, उन श्री हरि का – वासुदेव का आवेश उसे दूर करने को अनेक रूपों में प्रकट होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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