भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
दशावतार
सम्पूर्ण ऐश्वर्य – प्रभुत्व पर शासन स्थापित करके जो स्वयं सबका सेव्य बन गया है, उसका दमन सामान्य नर तो नहीं कर सकता! उसका दमन तो नरसिंह ही करेगा। सत्पुरुषों की उपेक्षा ही नहीं- स्वजनों, प्रियजनों को पीड़ा देने का व्यसन होता है लोभ में। जो मेरी न माने, वह मेरा शत्रु-धनमद का यह उन्मत्त रूप है और जब यह इतना उन्मद हो जाय, सज्जन-सत्पुरुष तो चुपचाप सहन ही कर सकते हैं; किन्तु नृशंस मदमत्त का हृदय-परिवर्तन सत्याग्रह नहीं कर पाता। उसका तो दमन करना पड़ता है और दमने में स्वयं कुछ पशुत्व की स्वीकृति तो है ही, भले उसमें सम्यक सद्भाव मनुष्यत्व भी हो। तृतीय प्रमुख अवतार है कच्छप। क्षीरोदधि मन्थन करके अमृत निकालना था देवता और असुरों को मिलकर और मन्दराचल को धारण किया श्रीहरि ने इस कच्छप रूप से।[1] कच्छप दीखते नहीं, वे जल में अदृश्य रहते हैं। दीखता था उनकी पीठ पर स्थित जल से ऊपर उठा मन्दराचल और समुद्र-मन्थन से हलाहल तथा अमृत दोनों निकलते हैं। सर्वाधार प्रभु दीखते कहाँ हैं? समस्त प्रयत्नों के वही आधार है; किन्तु दीखता है प्रयत्न अथवा प्रयत्न का माध्यम यह देह रूप महामन्दर जो श्वास के सर्प से बंधा घूम रहा है। देव और आसुर वृत्तियां इसे घुमाकर मन्थन कर रही हैं कि अमृत-आनन्द निकलेगा! निकलता है विष-दु:ख और मृत्यु। भगवान शिव- कल्याण की कामना, वैराग्य इस विष को पी लें और स्वयं श्रीहरि मन्थन करें, वे ही हृदय में बैठकर अपना आश्रय दें तो अमृत निकले और वे ही कृपा करें तो सुख से आसुरता पुष्ट न हो, सद्वृतियां अमृत पावें। यह कथा मूल रूप में भी आधिदैवत जगत की है। इस धरा पर घटने वाली यह घटना नहीं है। अमृत-मन्थन में दैत्यों के जो अग्रणी थे, उन बलि के स्वर्गाधिपत्य को समाप्त करने के लिए वामनावतार हुआ। बलि यज्ञ कर रहे थे, धर्मात्मा थे और ब्राह्मणों-सत्पुरुषों के भक्त थे। उनमें संयम, श्रद्धा, उदारता- सब सद्गुण थे। उन्हें छल से पदच्युत किया स्वयं श्रीहरि ने! उन करुणावरुणालय की कृपा की सीमा नहीं है। वे इतनी महान कृपा भी करते हैं।’ बलि में सब सद्गुण थे; किन्तु दो महान दोष थे - एक उनका संग असुरों का था। वे असुरों के पोषक, समर्थक थे और असुरों के अपकर्मों को उनसे प्रोत्साहन मिल रहा था। दूसरे उन्होंने अपने बल से [2] असमय में दूसरे का स्वत्व- इन्द्र का पद बलपूर्वक छीन लिया था। समर्थ होते हुए भी सौ अश्वमेध करके उसके फल की प्राप्ति के लिए समय की प्रतीक्षा करने को प्रस्तुत नहीं थे। इन्द्र का स्वत्व था स्वर्ग। इन्द्र शतक्रतु थे और उनके कर्म के फलोदय का काल था। उनसे उनका अधिकार बलि ने बलपूर्वक छीना था और यज्ञ करके उस छीने अधिकार पर जमे रहना चाहते थे। बलि में अहं प्रबल था और धर्म का अभिमान भी तो स्वयं में बड़ा दोष है। कितना भी बड़ा धर्मात्मा हो, उसमें अहं बढ़ेगा तो उसका पतन होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिरण्याक्ष-वध वारह ने किया तब प्रह्लाद पैदा नही हुए थे। प्रह्लाद की रक्षा के लिए नृसिंहावतार हुआ। समुद्र-मंथन के समय असुरोंं के अग्रणी दैत्यराज बलि थे। ये प्रह्लाद के पौत्र थे। समुद्र-मंथन के पश्चात् देवासुर संग्राम हुआ। उसके बाद -बहुत बाद बलि से वामन ने भूमि-दान लिया। यह क्रम है अवतारोंं का।
- ↑ भले वह धर्म-बल हो
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