भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
सगुण तत्त्व
सूक्ष्म शरीर में चेतन के आभास को ग्रहण करने की क्षमता है और उस आभासयुक्त सूक्ष्म शरीर का आवागमन अपने कर्म -संस्कारों के अनुसार होता रहता है। घड़े के जल में सूर्य का प्रतिबिम्ब पड़ रहा है। घड़ा जहाँ ले जाओगे, प्रतिबिम्ब साथ जाता लगता है; किन्तु जल केवल जल रहा है। प्रतिबिम्ब तो जहाँ भी घड़े में जल भरोगे, वहीं गृहीत हो जायगा। तन-मन, बुद्धि-अहंकार कुछ व्यष्टि के नहीं और कर्म भी व्यष्टि के नहीं, तब व्यक्ति को अपने शुभाशुभ कर्म का फल भोगने का विधान क्यों? यही अविद्या है। जीव का - आभासयुक्त सूक्ष्म शरीर का कह लो -संसरण अविद्याजन्य है- यह शास्त्र, सन्त सब कहते हैं। समष्टि का एक संचालक है और सृष्टि का प्रत्येक कर्म उसके द्वारा संचालित है- पूर्व निश्चित है। ऐसा न हो तो ईश्वर भी सर्वज्ञ नहीं कहा जा सकेगा और ज्योतिष-शास्त्र का भी कुछ अर्थ नहीं रहेगा। उस प्रकृति के परम प्रेरक के अतिरिक्त दूसरा कोई कर्ता नहीं है। कर्म होते हैं प्रकृति के गुणों से और प्रकृति तो किसी की होती है। तब जो कर्ता ही नहीं है, उसके लिए संयमिनी पुरी और उसका दण्ड विधान? सृष्टि का नियन्ता-संचालक अनन्त करुणावरुणालय है। दण्ड उसके विधान में है ही नहीं। जीव के शुभाशुभ कर्मों का ठीक-ठीक लेखा-जोखा वही नहीं करता तो उसका अनुचर संयमिनी का स्वामी क्या करेगा। संयमिनी पुरी और उसके अत्यन्त दारुण नरक भी केवल शोधन स्थान हैं। धर्मराज भागवताचार्य हैं और भक्ति धर्म में न कठोरता हैं, न उग्रता है। केवल वात्सल्य है वहाँ। अविद्या के कारण- अज्ञानवश जीव अपने तन-मन से होने वाले कर्मो को अपना मान लेता है। ‘मैं कर्ता हूँ’ यह मानने पर उसके सूक्ष्म शरीर में – चित्त में उन कर्मों के संस्कार पडते हैं। कर्मो के प्रवाह में जब वह ‘मैं कर्ता’ करके खड़ा होता है, कर्म मल लगने लगता है उसे। जैसे गंदे नाले के प्रवाह में कोई हाथ से जल को गति देने लगे तो उसके हाथ गन्दे हो ही जायेंगे। इस कर्म-मल से उसकी अपनी स्वच्छता ढक जाती है। फलत: उसमें अशान्ति, दु:ख आता है और यदि कर्म मल छुड़ाया न जाय- दु:ख बढ़ता जायगा। करुणावरुणालय को यह सह्य नहीं कि जीव दु:खी रहे, मलिन रहे। अत: बार-बार उसके प्रक्षालन की - शुद्धि की योजना उन्होंने कर रखी है। संयमिनी के स्वामी का कर्तव्य जीव पर जो मल उसने स्वयं लपेट लिया है, उसे देखकर उसको प्रक्षालित करने का विधान करना हैं। कम-से-कम पीड़ा पहुँचे प्राणी को और वह इतना शुद्ध हो जाये कि कर्म भूमि में जाकर अपने शेष मलों को स्वयं शुद्ध कर ले और अपने अधीश्वर की असीम अनुकम्पा का लाभ उठाकर अनादि अविद्या के अन्धकार से निकल सके, संयमिनी में केवल यह प्रयत्न होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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