भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
सगुण तत्त्व
समाधि में अहंकार का निरोध हो जाने पर भी जो रहता है, वह निर्विकार है। आवागमन सूक्ष्म शरीर समन्वित उस चेतन के आभास का ही होता है और अज्ञान से होता है। अहंकार ही व्यष्टि का भिन्न नहीं तो चेतन कैसे भिन्न होगा और एक अखण्ड निर्विकार चेतन है तो यह सृष्टि का संचालन? यह करुणावरुणालय? ये उसके विधान? श्रुति-पुराण सृष्टि में त्रिविध पुरुष वर्णन करते हैं। एक यह आध्यात्मिक पुरुष है जो सूक्ष्म ग्राहिणी सूक्ष्य बुद्धि से जाना जाता है।[1] यह अद्वय, निगुर्ण, निराकार, निर्विकार, परमब्रह्म ही ज्ञान गम्य है। श्रुति ‘नेति-नेति’ के द्वारा इसी का वर्णन करती है। जिज्ञासु - इसी को जानकर मृत्यु को पार कर जाते हैं। ‘तत्वमसि’ ‘अहं ब्रह्मास्मि’ आदि महावाक्यों द्वारा यही ब्रह्ममात्मैक्य बोध सूचित है; क्योंकि जब एक ही अद्वय तत्व है तो उसे ‘अहं’ के अतिरिक्त दूसरे किसी रूप में समझा नहीं जा सकता। समझने वाला स्वयं ही वह नहीं होगा तो तत्व एक नहीं रह सकेगा। लेकिन यह जो आध्यात्मिक पुरुष है, वही अधिदैविक भी है। यह तो आधिभौतिक प्रपञ्च एवं देह का व्यवधान इसकी यवनिका है जो दोनों को पृथक करती है।[2] आध्यात्मिक पुरुष तो सूक्ष्मग्राहिणी विशुद्ध बुद्धि से ग्रहीत होता है किन्तु आधिदैविक पुरुष श्रद्धैकगम्य है और इसके अनुग्रह के बिना अध्यात्म तत्व का अनुभव भी नहीं होता। जिसे तुम अपना आपा कहते हो, उसमें करुणा, दया आदि अनन्त गुण हैं। ये गुण देह एवं मन के सन्निकर्ष से विकृत हुए रहते हैं; किन्तु ये हैं ही नहीं, ऐसा नहीं कह सकते। प्रकृति अर्थात स्वभाव और स्वभाव स्वयं में तो कोई तथ्य वस्तु नहीं है। स्वभाव किसी का होगा और जिसका होगा, वह निर्गुण कैसे होगा। अत: वह निर्गुण-सगुण उभय रूप है। प्रकृति युक्त प्रपञ्च संचालक महेश्वर रूप में सगुण, ओर प्रपञ्चातीत निर्गुण। सृष्टि में कभी कोई ऐसा मनुष्य नहीं हुआ जिसे कभी-न-कभी संकट की घड़ी में यह अनुभव न हुआ हो कि उसे किसी अज्ञात शक्ति ने सहायता करके बचाया है। इस प्रकार जो सदा, सर्वत्र, सबकी सहायता करता है वह अकारण करुणासागर है, यह समझ जा सकता है। पशु कैसे सोचता है, यह भले न जाना जा सकता हो; किन्तु उसका सोचना भी किन्हीं संकेतों के माध्यम से ही सम्भव है और बाह्य चेष्टा से बिना मन में जो संकेतों के द्वारा चिन्तन होता है, उन्हीं संकेतों का नाम शब्द है। इस शब्द के बिना चिन्तन सम्भव नहीं और शब्द की सृष्टि व्यक्ति नहीं कर सकता। शब्द को अर्थ के सहित सृष्टि के आदि में वह महेश्वर ही व्यष्टि के हृदय में प्रकाशित करता है।[3] भाषा-शास्त्र के मर्मज्ञ स्वीकार करते हैं- ‘भाषा एक आन्तरिक साधन है जो अपने अर्थ के साथ प्राप्त हुई।’ आनुपूर्वी से - श्रवण-परम्परा से ही शब्द ज्ञान प्राप्त होता है। पदार्थ ज्ञान- तत्व ज्ञान भी ध्यान, समाधि से प्राप्त होता है- हो सकता है; किन्तु शब्द ज्ञान तो किसी से पाना ही पड़ता है। एक भी शब्द की मौलिक सृष्टि सम्भव नहीं है और शब्दों के बिना विचार-व्यवहार कुछ नहीं चल सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ दृश्यते त्वग्रययावुध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि:। कठोपनिषद 1.3.12
- ↑
योऽध्यात्मिकोऽयं पुरुष: सोऽसावेवाधिदैविक:।
यस्तत्रोभयविच्छेद: पुरुषो ह्याधिभौतिक:।।
एकमेकतराभावे यदा नोपलभामहे।
त्रितयं तत्र यो वेद स आत्मा स्वाश्रवाश्रय:।। श्रीम. भागवत 2.10.8.9 - ↑ तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये। (भागवत 1.1.1)
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