भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
सगुण तत्त्व
समष्टि मानस में वैसे ही व्यष्टि मन का भ्रम हो रहा है, जैसे समष्टि पृथ्वी में एक-एक देह के पार्थक्य का भ्रम हो रहा है। यदि व्यक्ति का पृथक मन नहीं है तो व्यक्ति पाप-पुण्य कर्ता ही कैसे हो सकता है? भगवान वासुदेव ने जो रणभूमि में तत्त्वोपदेश किया, उसमें उन्होंने कहा था- अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्। पृथ्वी समष्टि रूप से एक ही है। शरीर परमाणुओं की प्रवाह-धारा में प्रतीति मात्र है और इन शरीरों में जो वायु है, वह तो प्रत्यक्ष क्षण-क्षण बदल रहा है; लेकिन इतना होने पर भी विभिन्न शरीरों में विभिन्न रोग होते हैं। किसी शरीर में वायु विकृत होता है, किसी में शुद्ध। ऐसे ही समष्टि मन एक होकर भी प्रति शरीर भिन्न प्रतीत होता है और भिन्न-भिन्न संकल्प-विकल्पों का माध्यम रहता है। मन ही अन्तिम तत्त्व नहीं है। मन का नियंत्रण करती है बुद्धि। समष्टि- बुद्धि का भी अनुमान तुम कर सकते हो और बुद्धि का आधार है अहं, किन्तु अहं तत्व भी अपरिवर्तनीय नहीं है। निद्रा में जैसे मन-बुद्धि का लय हो जाता है; समाधि में अहं का भी निरोध हो जाता है। नाम का संस्कार, सुख-दु:ख, मानपमान अहं ग्रहण करता है। सुषुप्ति में भी अहं जाग्रत रहता है और इसलिए नाम लेकर पुकारने पर व्यक्ति जाग जाता है। सुषुप्ति में श्वास की गति, रुधिराभिसरण, अन्न-पाचन, केशादि वृद्धि, स्वेदादि मलाभिषरण का संचालन अहं करता है और यह अहं ही है जो मेरा मन, मेरी बुद्धि मानता है। इस अहं का निरोध समाधि में हो जाता है और तब अहं के कार्य रूधिराभिसरणादि अवरुद्ध हो जाते हैं। जब पृथ्वी व्यष्टि नहीं बनती तो सबसे सूक्ष्म अहं व्यष्टि कैसे बनेगा। अहं भी परिवर्तनशील है। नाम बदल जाता है और नये नाम में अहं स्थापित हो जाता है। आश्रम बदलता है तो अहं नया आश्रमी बन जाता है। यह अहं की प्रकृति है। अत: अहं भी प्रकृति का ही पुत्र है। एक है जो नहीं बदलता। उसे शब्द से समझाया नहीं जा सकता; किन्तु तुम जानते हो कि शैशव से अन्त तक तुम बदले नहीं हो। नाम बदल जाय, आश्रम बदल जाय; किन्तु तुम बदलते नहीं हो। समाधि में अहं का निरोध भले ही हो जाय; किन्तु समाधि में तुम रहते हो। तुम निर्विकार हो। यही अनिर्वचनीय निर्विकार परमतत्व है। समाधि में अहंकार निरोध हो जाने पर भी शरीर सड़ता नहीं - मरता नहीं। किन्तु यह चेतन जब शरीर को छोड़ देता है तो शरीर तत्काल सड़ने लगता है। इससे यह चेतन प्रति शरीर भिन्न हुआ और आवागमन जब इसमें है तो इसकी निर्विकारिता? मन, बुद्धि, चित्त अहंकार और पञ्च कर्मेन्द्रिय तथा पञ्च ज्ञानेन्द्रिय समन्वित सूक्ष्म शरीर न हो-चेतन कुछ ग्रहण करेगा? मिट्टी का घड़ा बन गया तो उसमें भरे आकाश में आने-जाने का भ्रम भी बना रहेगा और घड़े में धुंआँ भरकर मुख बन्द कर लो तो घड़ा चाहे जहाँ ले जाओ- घटाकाश धुएँ से युक्त रहेगा ही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 18/14-15
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