प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेमियों की अभिलाषाएँआत्यन्तिक विरह की कैसी विशद वर्णना है! प्रेम के कैसे भव्य भाव है! कैसी अनूठी अभिलाषाएँ हैं! इसे कहते हैं विरद वेदना की पुनीत धारा। त्रिताप संतप्त प्राणियों! पखार लो इस धवल धारा में अपने अपने अंग। ऐसी स्वर्गीय दिव्य धारा को बहाने वाले विरही नागरीदास को धन्य है! ऐसी ही अमन्द अभिलाषाएँ रसिक वर ललित किशोरीजी की भी हैं। वह भी मस्त होकर नागरीदास के सरस स्वर में अपना स्वर मिला रहे हैं; सुनिये- कदँब कुंज ह्वैहौं कबै श्रीवृन्दावन माहँ। अहा! ऊपर की इन परम पावन पंक्तियों में प्रेमोन्मत्त भक्त प्रकृति के अणु परमाणु के साथ तन्मय होकर अपने प्रियतम की कैसी उत्कण्ठित उपासना कर रहा है! भावुकजन प्रकृति को अपने उपास्य के रूप में देखते हैं। उनका प्रेमादर्श प्रकृति में ओतप्रोत रहता है। प्रेमी धूल, पवन, वृक्ष, लता, फूल फल, चकोर मोर आदि सब कुछ बनाने को तैयार है, पर शर्त यह है कि वे सब उसे उसके प्रियतम के मिलने में सहायक और साधक हों। अस्तु, ललित किशोरीजी की यह भी क्या अच्छी अभिलाषा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज