प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम में अधीरताकठोर कर्मठों ने बहुत रोका, पर उन प्रेम मूर्ति व्रजांगनाओं ने उनकी एक न सुनी। और तो सब सविनय अवज्ञा करके चली गयीं, केवल एक ब्राह्मणी अपने पतिदेव के धर्मपाश में फँस गयी। बेचारी पति के पैरों पर नाक रगड़ रगड़कर कहने लगी- देखन दै वृन्दावन चंद। वृन्दावन चंद्र श्यामसुंदर की झलक नेक देख आने दो। उस प्यारे गोपाललाल को यह कटोरा भर केशरिया दूध पिला आने दो। सभी सहेलियाँ तो गयी हैं। इस मिथ्या कुलाभिमान में क्या रखा है। छोड़ क्यों नहीं देते यह दम्भाचार? अरे, तुम इतने बड़े विद्वान होकर भी एक मूर्ख की भाँति बात कर रहे हो! मन में पाप विचारते हो! बालकृष्ण में मेरी पवित्र प्रीति को तुम शायद किसी और दृष्टि से देखते हो। क्या कहूँ तुम्हारी बुद्धि को! छोड़ो, जाने दो मुझे, आर्य पुत्र! उस प्राण प्यारे गोपाल का मुखचंद्र मुझे देख आने दो। हा! मैं कैसे जाऊँ। नन्द नन्दन को कैसै देख आऊँ! रति बाढ़ी गोपाल सों। वहाँ संग की सब सखियाँ अपने अपने हाथ से प्यारे कृष्ण और बलराम को प्रेम से भोजन करा रही होंगी, हाय! मैं ही अकेलो यहाँ इस पशुपाल के पाले पड़ी छटपटा रही हूँ। भले ही यहाँ यह पराधीन देह तड़पा करे, हृदय के भीतर तो कृष्ण प्रेम की आग जलती ही रहेगी। उस आग को कौन बुझा सकता है! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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