प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 58

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेम में अधीरता

कठोर कर्मठों ने बहुत रोका, पर उन प्रेम मूर्ति व्रजांगनाओं ने उनकी एक न सुनी। और तो सब सविनय अवज्ञा करके चली गयीं, केवल एक ब्राह्मणी अपने पतिदेव के धर्मपाश में फँस गयी। बेचारी पति के पैरों पर नाक रगड़ रगड़कर कहने लगी-

देखन दै वृन्दावन चंद।
हा हा कन्त, मानि बिनती यह, कुल अभिमान छाँड़ि मतिमंद।।
कहि, क्यों भूलि धरत जिय औरै, जानत नहिं पावन नँदनंद!
दरसन पाय आयहौं अबहीं, हरन सकल तेरे दुखद्वंद।। - सूर

वृन्दावन चंद्र श्यामसुंदर की झलक नेक देख आने दो। उस प्यारे गोपाललाल को यह कटोरा भर केशरिया दूध पिला आने दो। सभी सहेलियाँ तो गयी हैं। इस मिथ्या कुलाभिमान में क्या रखा है। छोड़ क्यों नहीं देते यह दम्भाचार? अरे, तुम इतने बड़े विद्वान होकर भी एक मूर्ख की भाँति बात कर रहे हो! मन में पाप विचारते हो! बालकृष्ण में मेरी पवित्र प्रीति को तुम शायद किसी और दृष्टि से देखते हो। क्या कहूँ तुम्हारी बुद्धि को! छोड़ो, जाने दो मुझे, आर्य पुत्र! उस प्राण प्यारे गोपाल का मुखचंद्र मुझे देख आने दो। हा! मैं कैसे जाऊँ। नन्द नन्दन को कैसै देख आऊँ!

रति बाढ़ी गोपाल सों।
हा हा! हरि लों जान देहु प्रभु, पद परसति हौं माल सों।।
सँग की सखी स्याम सनमुख भई, मैं हिं परी पसु पाल सों।
परबस देह, नेह अंतर्गत, क्यों मिलौं नयन बिसाल सों।। - सूर

वहाँ संग की सब सखियाँ अपने अपने हाथ से प्यारे कृष्ण और बलराम को प्रेम से भोजन करा रही होंगी, हाय! मैं ही अकेलो यहाँ इस पशुपाल के पाले पड़ी छटपटा रही हूँ। भले ही यहाँ यह पराधीन देह तड़पा करे, हृदय के भीतर तो कृष्ण प्रेम की आग जलती ही रहेगी। उस आग को कौन बुझा सकता है!

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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