प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम में तन्मयतासच कहियेगा उद्धवजी महाराज! क्या अब भी व्रज की गँवार गोपियों को योग दीक्षा देकर चेलियाँ बनाने का इरादा है? यदि नहीं तो अब आप खुद ही उनसे प्रेम दीक्षा लेकर उनके शिष्य क्यों न हो जाएँ? आप भी उन प्रेम मतवालियों के साथ झूमते हुए अलाप उठें- कान्ह भये प्रानमय प्रान भये कान्हमय कैसी होती होगी प्रेम साधक की वह अलौकिक अवस्था, जिसमें उसके मुख से प्रेम तन्मयता के ये दिव्य उद्गार निकलते होंगे। अहा! तूँ तूँ करता तूँ भया तुझमें रहा समाय। ‘मैं’ में खुदी है, और ‘तू’ में बेखुदी। जिसने अपने ‘मैं’ को प्यारे ‘तू’ में मिला दिया, खुदी को बेखुदी में लय कर दिया, वही प्यारी तल्लीनता का सुधा रस पियेगा, प्रेम तन्मयता का आनन्द लूटेगा। जब तक उसकी सुध में तुमने अपनी सुध नहीं भुला दी, तब तक उस प्रीतम की नजर में तुम भी भुले ही रहोगे। पर अपनी सुध तो उस प्यारे की कृपा से ही भुलायी जा सकती है। बेखुदी की दौलत उस दयालु की दया से ही हासिल हो सकती है- जातें सुधि भूलै सो कृपातें पाइयतु प्यारे! कैसी ऊँची है यह ‘याद’ और कैसी गहरी है यह ‘भूल’! हृदेश्वर! और नहीं तो हमारी यह एक अभिलाषा तो पूरी कर ही दो- मुझमें समा जा इस तरह तन प्राण का जो तौर है। देखें, इस जन्म में कभी यह सुख प्राप्त होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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