प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम-योगएक अंगी, बिनु कारनहिं, इकरस सदा समान। प्रेम को हम किस रस में लें, किस भाव में गिनें? जैसे समुद्र में लहरें उठती और उसी में लय हो जाती हैं, वैसे ही प्रेम में सर्वरस तथा सर्वभाव तरंगित होते रहते हैं- सर्वे रसाश्च भावाश्च तरंग एव वारिधौ। कुछ समझ में नहीं आता कि इस अव्यक्त रस भाव कल्लोल को क्या नाम दिया जाए। प्रेम का समुद्र कैसा अगाध, कैसा असीम और कैसा अनुपमेय है! प्रेम अगम, अनुपम, अमित, सागर सरिस बखान। प्रेम पयोधि से लौटना कैसा! यहाँ के डूबे हुए यहीं उछल कूद करते रहेंगे- जायेंगे कहाँ? वह ‘इन्द्रावती’ प्रणेता प्रेमी नूरमुहम्मद क्या अच्छा कह गया है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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