प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 32

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेमी

लिखते हैं-

एकै अभिलाख, लाख लाख भाँति लेखियतु,
देखियतु दूसरो न ‘देव’ चराचर में।
जासों मनु राजै, तासों तन मन राचै रुचि,
झरिकैं उधरि जाँचै साँचै करि करमें।।
पाँयन के आगे आँच लागेतें न लौटि जाय,
साँच देइ प्यारे की सती लौं बैठै सर में।
प्रेमसों कहते कोई ठाकुर न ऐंठौ सुनि,
बैठे गड़ि गहिरे, तौ पैठौ प्रेम घर में।।

प्रेमी ही सच्चा शूरवीर है। जिसे अपने प्राणों का भी मोह नहीं, वह कितना ऊँचा, कितना सच्चा और कितना पराक्रमी न होता होगा। आत्मबलिदान का महान् रहस्य एक प्रेमी ही समझता है। अपने ही हाथ से अपना सर उतारकर रख देना, अपने अहंकार को प्रेम की आग में जला देना, हर किसी का काम नहीं। आशिक होना हर बाजारू आदमी के हिस्से में नहीं आया है। विषयी और प्रेमी में कौड़ी मोहर का अंतर है। संत पलटूदासजी ने कितना अच्छा कहा है-

झूठ आसिकी करहिं मुलक में जूती खाहीं।
सहज आसिकी नाहिं, खाँड़ खाने की नाहीं।।
जीते जी मर जाय, करै ना तन की आसा।
आसिक का दिन रात रहै सुली पर बासा।।
मान बढ़ाई खोय नींद मरि नाहीं सोना।
तिल भरि रक्त न मांस नहीं आसिकी को रोना।।
बेवकूफ ‘पलटू’ वहै आसिक होने जाहिं।
सीस उतारै हाथ से, सहज आसिकी नाहिं।।

पागल पलटू ने आशिकी को देखा, आसमान पर चढ़ा रक्खा है! क्या सचमुच ही प्रेम की साधना इतनी कठिन है? हम दुनियादारों की राय में तो सबसे सुगम संसार में यदि कोई कार्य है, तो एक प्रेम ही है। प्रेमी का सर्टिफिकेट प्राप्त करने में हमारा एक पैसा भी तो खर्च नहीं होता। हम सभी अपने को प्रेमी कहते हैं, आशिक मानते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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