प्रेम योग -वियोगी हरि
शान्त भावयह तो हम कह ही चुके हैं कि आज हमें अपने आपका भी पता नहीं है। प्रेम की आग ने हमारा सब कुछ जलाकर खाक कर दिया है। न वह तन है, न वह मन है और न मेरा वह ‘मैं’ है। लोग पूछेंगे, तो फिर पहचाने कैसे जाते हो? पहचान तो हमारी साफ है। जिसने हमें लापता कर दिया है, हमें खो दिया है, उसी किसी के नाम से हम पहचान लिए जाते हैं- तुम्हारे नाम से सब लोग मुझको जान जाते हैं। सिवा इसके हम अपना पता और क्या बता सकते हैं? हम जैसे मस्तरामों का पता और क्या हो सकता है, भाई! ‘गोकुल गाँव को पैंड़ोहि न्यारो’ है। आत्मदर्शी सुंदरदासजी ने क्या अच्छा कहा है- द्वंद्व बिना बिचरैं बसुधा पर, है घट आतम ग्यान अपारो। बिना सच्ची लगन के यह जीव इस दशा को नहीं पहुँच पाता। स्वरूप दर्शन और प्रियतम मिलन प्रेम साधना से ही संभव है। पर होनी चाहिए वह लगन सीधी और सच्ची। तीर वह जो वार से पार हो जाय। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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