प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 296

प्रेम योग -वियोगी हरि

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शान्त भाव

यह तो हम कह ही चुके हैं कि आज हमें अपने आपका भी पता नहीं है। प्रेम की आग ने हमारा सब कुछ जलाकर खाक कर दिया है। न वह तन है, न वह मन है और न मेरा वह ‘मैं’ है। लोग पूछेंगे, तो फिर पहचाने कैसे जाते हो? पहचान तो हमारी साफ है। जिसने हमें लापता कर दिया है, हमें खो दिया है, उसी किसी के नाम से हम पहचान लिए जाते हैं-

तुम्हारे नाम से सब लोग मुझको जान जाते हैं।
मैं वहखोई हुई इक चीज हूँ, जिसका पता ‘तुम’ हो।।

सिवा इसके हम अपना पता और क्या बता सकते हैं? हम जैसे मस्तरामों का पता और क्या हो सकता है, भाई! ‘गोकुल गाँव को पैंड़ोहि न्यारो’ है। आत्मदर्शी सुंदरदासजी ने क्या अच्छा कहा है-

द्वंद्व बिना बिचरैं बसुधा पर, है घट आतम ग्यान अपारो।
काम न क्रोध, न लोम न मोह, न राग न द्वेष, न म्हारु न थारो।।
जोग न मोग, न त्याग न संग्रह, देह दसा न ढँक्यौ न उघारो।
‘सुंदर’ कोउ इक जानि सकै, यह गोकुल गाँव को पैंड़ोहि न्यारो।।
प्रेम मस्त को हजारों में कोई एक पहचान सकेगा।

बिना सच्ची लगन के यह जीव इस दशा को नहीं पहुँच पाता। स्वरूप दर्शन और प्रियतम मिलन प्रेम साधना से ही संभव है। पर होनी चाहिए वह लगन सीधी और सच्ची। तीर वह जो वार से पार हो जाय।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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