प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 286

प्रेम योग -वियोगी हरि

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सख्य

छोटे भाई साहब हैं! जो न करें सो थोड़ा। बेचारे बड़े सीधे हैं न? इतना भी तो नहीं जानते कि क्या तो हार है और क्या जीत! इन्हें अपने माँ बाप का तो पता है नहीं। अपनी इस सिधाई के ही कारण तो लड़कों के मत्थे दोष मढ़ रहे हैं। बलिहारी, भैया, बलिहारी!

दाऊ के ये व्यंग्य भरे वचन गोपाल के हृदय में बाण के समान चुभ गये। रोते हुए वहाँ से आप चल दिये। सखाओं के बहुत लौटाने पर भी न लौटे। आकर मैया से दाऊ की उलटी सीधी शिकायत जड़ ही तो दी-

मैया, मोहि दाऊ बहुत खिझाओ।
मोसों कहत, ‘मोलकौ लीनों’ तोहिं जसुमति कब जायो?

सो, मैया, अब मैं घर ही मैं बैठा रहा करूँगा। मुझे गरीब और अनाथ समझकर, मैया, सभी खिझाते हैं। वात्सल्य स्नेहमग्ना यशोदा की आँखें आँसुओं से भर आयीं। अपने दुलारे कन्हैया को छाती ले लगाकर बोलीं- मेरे प्यारे भैया!

सुनहु कान्ह, बलभद्र चबई, जनमत ही कौ धूत।
'सूरस्याम' मोह गोधन की सौं हौं जननी तू पूत।।

लाल, जाओ खेलो। बलराम को मैं समझा दूँगी। तुम्हारे वे दाऊ हैं। तुम्हें यों ही चिढ़ाते होंगे। तुम्हें वे प्यार भी तो खूब करते हैं।

दो पहर बीत गये। अब तो भूख के मारे रहा नहीं जाता। यशोदा मैया आज कैसी निठुर हो गयी है! अब तक छाक नहीं भेजी। दाऊ, मेरे तो गायें चराते चराते पैर पिराने लगे हैं। चलो, हम सब इन कदम्बों की छाया में घड़ी भर बैठकर सुस्ता लें। अहा! कैसी घनी छाया है! क्या हाल, सुबल, कि छाक लेकर कोई आ रहा है? हाँ, आ तो रहा है। अरे भैया, चलो, पहले छाक पर हाथ दे लें, पीछे टेंटियों को तोड़ें। लो, इन कमल के पत्तों की तो बना लें पत्तलें औ ढाक के पत्तों के दोने। तुम सबके बीच में, श्रीदामा भैया, मैं बैठूँगा। ठीक है न?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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