प्रेम योग -वियोगी हरि
सख्यछोटे भाई साहब हैं! जो न करें सो थोड़ा। बेचारे बड़े सीधे हैं न? इतना भी तो नहीं जानते कि क्या तो हार है और क्या जीत! इन्हें अपने माँ बाप का तो पता है नहीं। अपनी इस सिधाई के ही कारण तो लड़कों के मत्थे दोष मढ़ रहे हैं। बलिहारी, भैया, बलिहारी! दाऊ के ये व्यंग्य भरे वचन गोपाल के हृदय में बाण के समान चुभ गये। रोते हुए वहाँ से आप चल दिये। सखाओं के बहुत लौटाने पर भी न लौटे। आकर मैया से दाऊ की उलटी सीधी शिकायत जड़ ही तो दी- मैया, मोहि दाऊ बहुत खिझाओ। सो, मैया, अब मैं घर ही मैं बैठा रहा करूँगा। मुझे गरीब और अनाथ समझकर, मैया, सभी खिझाते हैं। वात्सल्य स्नेहमग्ना यशोदा की आँखें आँसुओं से भर आयीं। अपने दुलारे कन्हैया को छाती ले लगाकर बोलीं- मेरे प्यारे भैया! सुनहु कान्ह, बलभद्र चबई, जनमत ही कौ धूत। लाल, जाओ खेलो। बलराम को मैं समझा दूँगी। तुम्हारे वे दाऊ हैं। तुम्हें यों ही चिढ़ाते होंगे। तुम्हें वे प्यार भी तो खूब करते हैं। दो पहर बीत गये। अब तो भूख के मारे रहा नहीं जाता। यशोदा मैया आज कैसी निठुर हो गयी है! अब तक छाक नहीं भेजी। दाऊ, मेरे तो गायें चराते चराते पैर पिराने लगे हैं। चलो, हम सब इन कदम्बों की छाया में घड़ी भर बैठकर सुस्ता लें। अहा! कैसी घनी छाया है! क्या हाल, सुबल, कि छाक लेकर कोई आ रहा है? हाँ, आ तो रहा है। अरे भैया, चलो, पहले छाक पर हाथ दे लें, पीछे टेंटियों को तोड़ें। लो, इन कमल के पत्तों की तो बना लें पत्तलें औ ढाक के पत्तों के दोने। तुम सबके बीच में, श्रीदामा भैया, मैं बैठूँगा। ठीक है न? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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