प्रेम योग -वियोगी हरि
एकांकी प्रेमपपीहे का एकांगी प्रेम देखो, कितना ऊँचा है! अहा! और यही हाल उस पतंगे का भी है। एक ओर दिये की यह लापरवाही और संगदिली और दूसरी ओर पतंगे की वह लगन और जाँनिसारी देखते ही बनती है। पतंगे के तिरस्कृत प्रेम पर एक सज्जन उससे कहते हैं कि अरे पगले, इस बदरदी लौ से लिपटकर क्यों यों ही जान दे रहा है? तुझे यह क्या पागलपन सूझा है रे? वे तो मानत तोहि नहिं, तैं कत मरय्यौ उमंग। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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