प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 205

प्रेम योग -वियोगी हरि

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विश्व प्रेम

सबमें वही हकीकत दिखलायी दे रही है। - मीर

अपने प्रियतम को यदि तुम सरसे पैर तक, सिख से नख तक, विश्व व्याप्ति के भाव स एक बार भी देख लो तो जर्रे जर्रे अणु अणु में तुम्हें अखिल ब्रह्माण्ड नायक परब्रह्म का दर्शन हो जाय। मीर की यह दृढ़ धारणा है-

सरा पा में उसके नजर करके तुम,
जहाँ देखो अल्लाह अल्लाह है।।

नजर में वह प्यारा एक बार समा भर जाय, फिर तो वही वही जहाँ तहाँ दिखलायी देगा-

समाया है जब से तू नजर में मेरी,
जिधर देखता हूँ उधर तू ही तू है।

जब चराचर में, घट घट में, मेरा ही प्यारा राम रम रहा है, तब इस विश्व ब्रह्माण्ड की प्रत्येक वस्तु से मैं क्यों न प्रेम करूँ? अरे, जितने यहाँ रूप हैं, सब उसी हृदय रमण के तो विविध रूप हैं, और जितने यहाँ रंग हैं, सब उसी प्यारे रंगीले के जुदे जुदे रंग हैं। उस प्यारे के प्यार से ही यह विश्व इतना प्यारा लग रहा है-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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