प्रेम योग -वियोगी हरि
कुछ आदर्श प्रेमीमयूर का भी प्रेम अकृत्रिम और अप्रतिम है। श्यामधन की वह हृदय हारिणी छबि मयूर के मन पर जाने क्या जादू डाल देती है। अपने प्रियतम को नाच नाचकर रिझाना उस प्रेमोन्मत पक्षी ने ही जाना है। श्याम नीरद की कमनीय कान्ति देखते ही उसका एक एक पंख प्रफुल्लित और पुलकित हो जाता है। उसकी प्यासी आँखों में न जाने कितने प्रेम मदिरा भर जाती है। श्यामघन से उसकी इतनी अधिक प्रीति होने से ही प्यारे घनश्याम ने उसके पंखों का मुकुट अपने मस्तक पर धारण किया है। धन्य प्रेमोन्मत्त मयूर का भाग्य! मोर सदा पिउ पिउ करत, नाचत लखि घनस्याम। ‘पोरशिखा’ नाम की एक बूटी होती है। उसमें जड़ नहीं होती! पर बरसात आते ही वह सूखी हुई बूटी पनप उठती है! श्यामघन की प्रेममयी ध्वनि सुनकर जड़ मोरशिखा भी ललक से लहलही हो जाती है। यह नाम का प्रभाव नहीं तो क्या है! जब जड़ ‘मोर’ का यह हाल है, तब चैतन्य मोर के आनन्द का कुछ पार! ‘तुलसी’ मिटै न मरि मिटेहुँ, साँचो सहज सनेहु। मोर की नाईं हमारे मन मोर भी किसी घन को देखकर क्या कभी आनन्दातिरेक से नाचने लगेंगे! बड़भागी तो हमारे हरिश्चंद्र है। धन्य! भरति नेह नवनीर नित, बरसत सुरस अथोर। और भी, प्रेम जगत् में कितने ही आदर्श प्रेमी हैं। उस चाह भरे चुम्बक का लोहे को खींचकर हृदय में लगा लेना कौन नहीं जानता। क्षीर के प्रति नीर का प्रेम क्या साधारण कोटिका है! मिट्टी और पानी की प्रीति क्या कोई मामूली प्रीति है। मिट्टी का घड़ा ही स्नेहा लिंगन देकर जल के हृदय को ठंडा करता है। कनक कलश में उसे वह सुख कहाँ! देखौ, जाकौ प्रेम जासु सँग ताहि तौन ही भावै। इन आदर्श प्रेमियों के प्रेम का हमलोग भी क्या कभी अनुकरण कर सकेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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