भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
विवाह
कंस बड़े उत्साह से पहुँचा था श्री वसुदेवजी के भवन। वसुदेव जी ने आगे आकर स्वागत किया उसका। भुजायें फैलाकर मिले और साथ-साथ भवन में लाकर बोले- युवराज अन्त:पुर में पधारें। मेरे साथ जाने से भाई से मिलने में आपकी बहिनें कदाचित कुछ संकोच करें।’ ‘आपके अन्त:पुर में तो मैं कुछ दिन पीछे जाऊँगा, जब अपनी एक और बहिन को वहाँ रहने का प्रबन्ध करके साथ ले जाऊँआ।’ कंस ने हँसते हुए कहा- ‘मुझे आप अनुमति तो देते हैं?’ ‘अन्त:पुर आपकी बहिनों का है, उनका भाई किसी को वहाँ बसाना चाहे तो मैं रोकने वाला कौन?’ वसुदेव जी ने भी सहास्य ही कहा- ‘अनुमति ही लेनी है तो आप अपनी बहिनों से लीजिये।’ ‘देवकी सबको प्रिय है। सबके लिए बच्ची के समान है। उसे यहाँ कोई अस्वीकर नहीं करेगा। वह भी अपनी बहिनों में रहेगी तो प्रसन्न रहेगी।’ कंस ने बात स्पष्ट कर दी- ‘मैं आपकी अनुमति लेने आया हूँ।’ ‘युवराज! आप जानते हैं कि मैं इस सम्बन्ध में स्वाधीन नहीं हूँ। मेरी ही रुचि की बात होती तो मैं मर्यादा पुरुषोत्तम के समान एक पत्नी व्रत अपनाता।’ वसुदेव जी ने बहुत गम्भीर होकर कहा- ‘किन्तु पितृ चरण का मैं आज्ञानुवर्ती हूँ और जब वे किसी की कन्या को अपनी पुत्रवधू बनाने की स्वीकृति दे देते हैं, मैं क्या कर सकता हूं?’ ‘तब मेरी सबसे छोटी बहिन-मेरी पुत्री जैसी देवकी को भी कृतार्थ ही करना है आपको।’ कंस खुलकर हँसा- ‘इस बार स्वयं महाराज प्रार्थना करने गये हैं और अब आप जानते ही हैं कि आपके पितृ चरण तो आशुतोष हैं। उनके चरणों में पहुँची प्रार्थना को वे ‘एवमस्तु’ कहना ही जानते है!’ कंस वसुदेव जी से भुजा फैलाकर मिला और साथ लाये उपहार भेंट करके लौट आया। वसुदेव जी ने उपहार देखकर कहा था- ‘यह सामग्री युवराज!’
उसी दिन से वसुदेव जी अन्त:पुर में देवी देवकी का कक्ष निश्चित हो गया और सभी अन्त:पुर की सदस्यायें उसे सज्जित करने में सोल्लास लग गयीं। सबका एक ही स्वर था- ‘पिता जी ने और महाराज ने बहुत उत्तम निर्णय लिया। देवकी इतनी भोली हैंं कि कहीं अकेले जाकर तो अत्यन्त दु:खी हो जातींं। उस छुई-मुई-सी को पल-पल सम्हालने वाली अभिभाविकायें आवश्यक हैं।’
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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