भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
विवाह
महाराज उग्रसेन अपने अग्रज देवक जी को लेकर ही श्री शूरसेन जी के सदन में पधारे थे। प्रणाम करके उन्होंने कहा- ‘हम दोनों प्रार्थना करने आये हैं कि आप अपने-ज्येेष्ठ पुत्र के लिए एक पुत्र वधू और स्वीकार कर लें।’ ‘हम देवकी के लिए प्रार्थना करने आये हैं। महाराज ने स्पंष्ट कर दिया। ‘प्रार्थना कैसी महाराज!’ शूरसेन जी ने सुप्रसन्न कहा- ‘वसुदेव आपका है और हम भी आपके ही हैं।’ मथुरा में इस विवाह की चर्चा प्राय: चला करती थी। इतना उल्लास इतनी महती नगर सज्जा, इतना सम्भार इस विवाह में हुआ था कि किसी की कल्पना में यह नहीं आ सकता था। महाराज उग्रसेन और उनके अग्रज देवक जी ने अपनी सभी कन्याओं का विवाह शूरसेन जी के ही कुल में किया था और किसी विवाह में उन्होंने कोई कृपणता नहीं की थी; किन्तु यह उनकी सबसे छोटी कन्या का विवाह था। उनको लगता कि प्रत्येक बार कुछ न कुछ त्रुटि रह गयी है और इस बार सब त्रुटियों को दूर करना है। कंस का उत्साह सबसे अधिक था। उसने अपने सभी अनुगतों, मित्रों को सन्देश भेज दिया था- ‘यह मेरी अनुजा का, मेरी पुत्री जैसी अनुजा का विवाह है।’ अपनी दिग्विजय में प्राप्त सब दुर्लभ सामग्री कंस ने देवकी के दहेज के लिए सुरक्षित कर दी थी। केवल आयुध, उद्दण्ड अश्व एवं महागज कुवलयापीड़ उसे शान्त प्रकृति वसुदेव जी के उपयुक्त नहीं लगे। वैसे ही कंस की आज्ञा की उपेक्षा करने का कोई साहस नहीं करता था और इस समय तो सभी में आन्तिरिक उल्लास था। इस पर भी कंस स्वयं सम्पूर्ण सामग्री साज-सज्जा आदि का निरीक्षण कर रहा था। सबसे अधिक उल्लास था उसमें-अकल्पित उत्साह। असाधारण उत्साह की प्रतिक्रिया भी असाधारण होती है। इसलिए पीछे जो कुछ हुआ, वह स्वाभाविक था। केवल महर्षि गर्गाचार्य उन दिनों शान्त-गम्भीर थे। सभी पीछे वर्षों तक विवाह-चर्चा के साथ कहते रहे कि महर्षि के नेत्र अद्भुत गम्भीर थे उन दिनोंं। किसी कार्य में महर्षि ने प्रमाद नहीं किया। जो आवश्यक था-सबका निर्देश किया और जो कराना था सब कराया किन्तु उल्लास नहीं था उनमें।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज