भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
युवराज कंस
महाराज उग्रसेन इतने सात्त्विक, शान्त, भगवद् भक्त, परदु:खकातर और उनके ज्येष्ठ पुत्र ऐसे क्रूर, अभिमानी तथा असुर-मित्र हो गये- आश्चर्य ही है। देवर्षि नारद ने बतलाया था कि देवासुर-संग्राम में भगवान नारायण के चक्र से मारा गया महासुर कालनेमि ही कंस के रूप में धरा पर आया, अत: कंस के शील-स्वभाव में जो आतुरता थी, वह समझ में आती है; किन्तु ऐसे असुर ऐसे सात्त्विक पुरुष को पिता बनाने का अवसर कैसे पा जाते हैं? कंस उग्रसेन जी का केवल क्षेत्रज पुत्र था। महारानी के प्रमाद से उनके उदर में आने का अवसर मिल गया असुर को। देवर्षि नारद ने यह कथा कंस को भी सुना दी थी। देवासुर-संग्राम में जब श्रीहरि के चक्र ने कालनेमि का सिर धड़ से पृथक कर दिया, शुक्राचार्य जी ने सांयकाल फिर उस सिर को धड़ में सटाया और अपनी संजीवनी विद्या से जीवित कर दिया। जीवित होकर वह मन्दराचल पर चला गया और केवल दूर्वा का रस पीकर दीर्घ काल तक तप करता रहा। जब सुप्रसन्न सृष्टि कर्ता ने उसके सामने प्रगट होकर वरदान मांगने को कहा तो उसने मांगा ‘कोई सुर-असुर मुझे मार न सके।’ इस वरदान को पाकर कालनेमि पृथ्वी पर आने का अवसर देख रहा था। अवसर पाकर कंस के रूप में उसने जन्म-ग्रहण किया। देवर्षि नारद ने बतलाया था- “जिस सौभ विमान को तथा उसके स्वामी शाल्व को श्रीकृष्ण ने नष्ट किया, वह विमान भगवान शंकर के आदेश से दानवेन्द्र मय के द्रुमिल से लेकर शाल्व को दिया थां दानवेन्द्र ने इस विमान को पहिले बनाया था और द्रुमिल की सेवा से प्रसन्न होकर उसे दे दिया था।” महाराज उग्रसेन के विवाह को थोड़े ही दिन हुए थे। महारानी युवती थीं। उन्होंने उत्साह में महाराज से अनुमति ली और सखियों के साथ सुयामुन (कलिन्द) पर्वत पर घूमने चली गयीं। गिरि, वन एवं निर्झरों से उन्हें सहज प्रीति थी। महारानी ने नयी अवस्था के उत्साह में यह ध्यान नहीं दिया कि पति से पृथक होने पर प्रोषित-पति का–नारी को संयम, सादगी और मर्यादा-पूर्वक रहना चाहिये। उन्होंने भली प्रकार श्रृंगार किया था। पर्वत पर किन्नर युगलों के उत्तेजक गायन को सुनकर वे स्वयं श्रृंगार रस में मग्न हो गयीं। सखियों के साथ गाती हुई वे पर्वत पर पुष्पित लता-कुञ्जों में घूमने लगीं। उसी समय द्रुमिल अपने सौभ विमान में चढ़ा पर्वत के ऊपर से निकला। उसने सहज ही विमान नीचे उतारा और विमान चालक को साथ लेकर पर्वत पर घूमने चल पड़ा। दूर से उसकी दृष्टि सम्पूर्ण श्रृंगार किये महारानी पर पड़ी। वे अतिशय सुन्दर तो थीं ही। दानव द्रुमिल वैसे भी कामुक था। उसका मन क्षुब्ध हो गया। ‘यह सुन्दरी कौन है’ दानव ने स्वत: कहा। उसका सेवक मौन रहा। महारानी के भाल का सिन्दूर स्पष्ट था और दानव जानता था कि आर्यनारी के साथ बलात्कार सम्भव नहीं है। वह शाप देकर प्राणोत्सर्ग कर देगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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