भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
युवराज कंस
‘यह तो यादव नरेश उग्रसेन की महारानी हैं।’ ध्यान करके दानव ने यह जान लिया। महारानी पति से दूर हैं और इस समय उनका मन श्रृंगारोत्तेजित हैं, यह भी उसने जान लिया। साथी को वहीं छोड़कर महाराज का रूप माया से धारण करके महारानी की ओर चल पड़ा। ‘महाराज आप? महारानी ने मुस्कराते हुए महाराज को अपनी ओर आते देखा तो चौंकीं भी और प्रसन्न भी हुई। ‘मैं तुम्हारा वियोग नहीं सक सका।’ कहते हुए द्रुमिल ने भुआजों में महारानी को भर लिया। सखियां स्वयं दूर चली गयीं वहाँ से। महारानी पहिले से ही उत्तेजित थीं। उनके नेत्र बन्द हो गये। पति का प्रतिवाद करने का प्रश्न ही नहीं था; किन्तु उत्तेजना शान्त होते ही वे सावधान हो गयीं। असुर के अंग की दीर्घता ने उन्हें चौंका दिया। वे क्रोध से कांपती हुई बोलीं: ‘सच-सच बता, तू कौन है? तूने छल करके मरा सतीत्व नष्ट करने का साहस कैसे किया? मैं तुझे अभी शाप देकर भस्म कर दूंगी।’ ‘तू मुझे शाप नहीं दे सकती।’ द्रुमिल अपनी दानव प्रकृति पर उतर आया- ‘शाप केवल सती दे सकती है। पति से दूर इतना श्रृंगार करके तू उन्मत्त क्रीड़ा कर रही है, यह सतीत्व है? तू यहाँ एकान्त पर्वत पर कामोत्तेजक वेश बनाये, श्रृंगार के गीत गाती, हंसती-अठखेलियां करती दर्शक के मन-नेत्र को बलात आकर्षित कर रही है और कहती है कि दोष मेरा है?’ ‘तूने मुझे ‘कस्त्वं’ कहा है, अत: तेरे इस समय के स्थापित गर्भ से जो पुत्र होगा, उसका नाम कंस होगा।’ दानव ने कहा- ‘वह अतिशय प्रतापी होगा, इसी से सन्तुष्ट हो जा। अन्यथा इस घटना को प्रकट करके तू प्रताड़िता-अपमानिता ही होगी।’ दानव वहाँ से तत्काल चला गया। महारानी बहुत दु:खी, दीन हो गयीं। कठिनाई से उन्होंने अपने अश्रु पोंछे। सखियों ने समझा कि महाराज के अकस्मात चले जाने से महारानी दु:खी हो गयी हैं। वे उसी समय मथुरा लौट आयीं। कंस का जन्म मृगशिरा नक्षत्र में हुआ था। उसका कर्म नक्षत्र चित्रा था। वह बचपन से उग्र प्रकृति का था और बलवान क्रूर प्रकृति के लोग उसे प्रिय थे। ऐसे लोगों को अनुशासन में रखना उसे बहुत अच्छा आता था। शीघ्र ही मथुरा के मल्लों ने अल्पायु राजकुमार की शक्ति के सम्मुख मस्तक झुका दिया। मल्ल युद्ध और गदा युद्ध कंस को प्रिय थे और इनमें उसे अतिशय निपुणता प्राप्त थी। उसके नेत्र बड़े-बड़े और लाल-लाल थे। शरीर वज्र के समान कठोर, रस्सी के समान कसा सुदृढ़ था। विशाल शरीर और महाराज उग्रसेन से सर्वथा भिन्न कज्जल कृष्ण वर्ण था कंस का। उसका नामकरण भी माता ने ही किया था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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