भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
यादव महराज उग्रसेन
उनमें रोष या उग्रता का कोई चिन्ह नहीं था, उन्होंने कभी किसी राज्य पर आक्रमण की अनुमति नहीं दी। वे स्वभाव से ही उदार थे और दूसरे लोगों की सम्पत्ति स्वीकार कर लेते थे। उनका अपने किसी मत में कोई आग्रह नहीं था- जैसे उनका अपना कोई मत ही न हो। लेकिन वे धर्म, प्रजापालन तथा भगवद् भक्ति में अत्यन्त दृढ़ थे। उन्होंने कंस का अनेक बार बहुत कड़ा विरोध किया था और अन्त में कंस के असुरों के विरुद्ध शस्त्र ही उठा लिया था उन्होंने। भगवान वासुदेव अत्यधिक सम्मान करते थे महाराज का। किन्तु महाराज ही थे कि उन्हें कभी भ्रम नहीं हुआ कि श्रीकृष्णचन्द्र सामान्य मनुष्य हैं। वे वासुदेव की भगवत्ता के ठीक ज्ञाता थे और इसीलिए सदा वासुदेव जो कहें उसी का समर्थन करते थे। अपने को भगवत्करों का यन्त्र बना देना, यह कहा बहुत जाता है, शास्त्रों में स्थान-स्थान पर है; किन्तु यह कितना कठिन है। महाराज उग्रसेन ने इसे सहज बना लिया था। उनके भीतर अपने अहं की ग्रन्थि का लेश भी कहीं नहीं रह गया था। सर्वेश्वर यों ही तो किसी का अनुगत नहीं बन जाता भगवान वासुदेव महाराज उग्रसेन के सिंहासन के पार्श्व में भृत्य के समान खड़े रहते थे और महाराज के समुचित सम्मान के प्रति सदा सावधान रहते थे। इतना सम्मान कदाचित ही पृथ्वी पर किसी मनुष्य को मिला होगा। सुधर्मा सभा में सिंहासनासीन महाराज के सम्मुख अनेक बार इन्द्र, कुबेरादि लोकपाल आये और छुद्र सेवक के समान उनके पादपीठ का अपने मुकुट से स्पर्श करके अपने उपहार वहाँ अर्पित करके पिछड़ते पदों हट गये। महाराज के सम्मुख मस्तक उठाने की धृष्टता देवराज भी नहीं करते थे। लेकिन महाराज में गर्व की छाया तक नहीं तक नहीं दीखी कभी। वे जैसे मूर्ति बन गये थे। आराध्य मूर्ति और उनका अन्तर सदा सजग रहता था - ‘यह भगवान् वासुदेव हैं कि तुम्हें इस आराध्य पीठ पर बैठाये हैं। यह वासुदेव की महिमा उनका प्रभाव-उनकी कृपा है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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