भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
उपनयन
स्वर्ण कलश में स्थापित यज्ञोपवीत का अभिमन्त्रण, प्रक्षालन और दस बार गायत्री जप से उसका स्थापन हुआ। सर्वदेवमय यज्ञोपवीत में देवावाहन पूजन–प्रणव, अग्नि, सर्प(शेष), सोम, सूर्य, पंचपितर, प्रजापति, यम, वायु, विश्वेदेवा और ग्रन्थि देवता भगवान ब्रह्मा, अनन्तशायी विष्णु, भगवान रुद्र का सांग-सविधि पूजन कराया आचार्य ने और तब– ऊँ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेयत्सहजं पुरस्तात्। पढ़ते हुए, कलश से अपने कर सम्पुट में लिये, अभिमन्त्रित किये यज्ञोपवीत को भगवान भास्कर को दिखाकर आचार्य ने बलराम-श्रीकृष्ण को पहना दिया। पीतकौशेय, हरिद्रारंजित यज्ञोपवीत की अदभुत शोभा है राम-श्याम के श्रीअंग पर। मौन रहकर एणेयाजिन परिधान, वाज्याजिन ग्रहण हुआ और आचार्य ने अपने करों से दोनों भाइयों को पलाश-दण्ड दिये। दण्ड उछालना ही इतनी देर में एक रुचि का कर्म मिला। श्रीकृष्णचन्द्र ने जिस उल्लास से दण्डोच्छ्रय किया, उसे देख सबको हँसी आ गयी। आचार्य ने अंजलि में जल लेकर राम-श्याम की अंजलियाँ भर दीं और सूर्यदर्शन कराके, दक्षिण-स्कन्ध पर हाथ रखकर हृदय का आलभन किया। प्रजापतियों को, पंचभूतों को अपने इन ब्रह्मचारियों की रक्षा का भार दिया। जो भूभार-निवारणार्थ ही धरा पर अवतीर्ण हुए हैं, उनकी रक्षा का भार वहन करेंगे देवता और पंच महाभूत? लेकिन इनको भी कृतार्थ होना है। श्रुति का चरमोन्वेष्य जब श्रुति की परम्परा में अपने को आवेष्टित करने की लीला करने आया है तो उसे समस्त विधियों को गौरव भी तो देना है। कदली शत स्तम्भ शोभित, कौशेय कला-वितान रत्न-झालरों से युक्त मण्डप में दिक्पालों की पताकायें लहरा रही हैं। गगन में और धरा पर सर्वत्र गान, मंगलवाद्य ध्वनि, स्तवन, मन्त्रपाठ, नृत्य चल रहा है। दिशाओं में दीप-सुज्जित, सुपूजित, स्वर्णकलश हैं। नाना रंग की स्वर्णवेदियों पर सुरों ने प्रत्यक्ष आसन ग्रहण कर लिया है। अपनी-अपनी पूजा स्वीकार कर ली है। राम-कृष्ण आचार्य के वाम भाग में बैठकर भगवान हव्यवाह के आवाहन का आयोजन कर रहे हैं। ब्रह्मा का वरण हुआ, कुश-कण्डिका हुई और करों में स्त्रुवा लिये ये कांचन गौर तथा नीलकांत जैसे द्विधा रूप धरे साक्षात यज्ञपुरुष ही यजन करने आ बैठे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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