भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
उपनयन
भगवान हव्यवाह को हवि का क्या वहन करना है? मूर्तिमान देवता कब से आतुर प्रतीक्षा कर रहे हैं कि इन दोनों भाइयों के हाथ से हविर्भाग मिले। आह्वान की अपेक्षा किसी सुर को कहाँ है। हवन, प्रतिष्ठा-पूजन, प्रायश्चित्तात्मक हवन, पूर्ण पात्र-दान, स्वस्ति-पाठ, प्रोक्षण, बर्हि-हवन–गर्गाचार्यजी केवल संकेत करते गये। उनको मात्र मन्त्रपाठ करना है। जिनकी नि:श्वास श्रुति है, उन यजमानों को कुछ समझाने की आवश्यकता नहीं होनी थी। ‘तुम दोनों आज से ब्रह्मचारी हुए! प्रमादहीन होकर नियमों का पालन करना। दिन में शयन मत करना। वाणी को नियन्त्रित रखना। नित्य समिधायें लाना। जलाशयों में तैरना मत।’ महर्षि अपने यजमान ब्रह्मचारियों को अनुशासित करने लगे हैं। बद्धांजलि, नतमस्तक,दोनों भाइयों ने श्रद्धासहित अनुशासन ग्रहण किया। लग्नदान हुआ और राम-श्याम ने महर्षि का गुरु-रूप में वरण किया। महर्षि का रोम-रोम उत्थित हो उठा, सर्वांग स्वेद स्नात हो गया जब दोनों भाई उनका पूजन करने लगे। जो ज्ञानघन हैं, सबके परम गुरु हैं, जिनके पावन पदों की आराधना महर्षि के गुरु भगवान इन्दुमौलिक का सर्वस्व है, उनका गुरु पद-उनके द्वारा यह अर्चा! कितनी श्रद्धा, कितनी उमंग से दोनों भाई पूजन करने में लगे हैं। महर्षि गर्ग राम-श्याम के गुरु हो गये। वाद्यों के घनघोष, तुमुल जयनाद, मंगलगान के मध्य दोनों यजमानों के दक्षिण कर्ण के समीप बारी-बारी से मुख ले जाकर तीन-तीन बार गायत्री का उच्चारण कर दिया महर्षि ने। भूमि में पड़कर साष्टांग प्रणिपात किया राम-श्याम ने उन्हें। पुष्प और फलों से भरी अंजलि महर्षि के पावन पदों पर अर्पित करके वहाँ मस्तक रखा। महर्षि का आशीर्वाद–आज ही तो नाभि से उठती आशीर्वाद की परावाणी कृतार्थ हुई। सावित्री-दान और गुरु-दक्षिणा–रत्नों की अपार राशि, लक्ष-लक्ष गायें, वस्त्र, आभरण, तिल–गणना सम्भव नहीं। वसुदेव जी कहाँ सन्तुष्ट हो रहे हैं आज देते हुए। पंचायतन दीक्षा हुई और मध्याह्न सन्ध्या, अग्नि समिन्धन किया दोनों भाइयों ने। ब्रह्मचारी समित-हवन ही करते हैं। जल से अग्नि का आवेष्टन करके एक समित ली, कान से लगायी और आहुति दे दी। समिधा की केवल तीन आहुतियाँ। मौन होकर हवनीय अग्नि से कमलदलारुण कर तनिक उष्ण किये गये और मुख का मार्जन कर लिया। सात बार यह मुख-प्रोच्छन हुआ। राम-श्याम ने विशाल भाल पर भस्म–त्रिपुण्ड लगाया और अपने कान पकड़कर भूमि में मस्तक रखकर तीन-तीन बार वन्दना की अग्निदेव की। ये लीलामय अपने ही आदर्शों का पालन करने में लगे हैं, अन्यथा अग्निदेव आज्ञा पाते तो स्वयं कान पकड़कर तीन सहस्त्र बार इनकी चरण-वन्दना करने में अपना परम सौभाग्य मानते। ‘सौम्य! भिक्षा ले आओ! वृथालाप में समय नष्ट मत करना!’ आचार्य को विधि के अनुसार आदेश देना था। गौर-श्याम अंग, मुण्डित मस्तक पर बंधी बड़ी-सी शिखा, विशाल भाल पर भस्म-त्रिपुण्ड, उत्तरीय के स्थान पर वामस्कन्ध से आकर वक्ष-पृष्ठ-देश को आच्छादित करता बंधा कृष्णमृगचर्म, वामकुक्षि में दबा अश्वाजिन, वामकर में पलाश-दण्ड, दक्षिण स्कन्ध पर पीत कौशेय वस्त्र की झोली, कटि में तीन बार लपेटी मौंजी मेखला में बंधी पीत कौपीन–ये राम-श्याम भिक्षा लेने चले हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज