भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
ब्रजराज विदा हुए
महाराज उग्रसेन ने चाहा था कि व्रजराज और गोप राजकीय अतिथि बनकर रहें। सिंहासन को उनके सत्कार का सौभाग्य प्राप्त हो; किन्तु वसुदेव जी के सम्बन्ध, सौहार्द, स्नेह का अधिकार बहुत बड़ा है। आजकल तो वसुदेव जी का भवन ही वास्तविक राज-भवन हो गया है। व्रजपति मथुरा में रहें और अन्यत्र रहें, यह सम्भव नहीं है। वे अपने भाई का सत्कार करने में आज तृप्त ही नहीं हो रहे हैं। श्रीवसुदेवजी के आग्रह-स्नेह के कारण दिन बीतते जा रहे हैं। व्रज जाना है, अब वहाँ से प्रतिदिन सन्देश आने लगा है। यहाँ से नित्य चर जाते हैं। प्रतिदिन प्रस्थान का उपक्रम होता है; किन्तु वसुदेव जी का प्रेमानुरोध तोड़ा नही जा पाता। श्रीकृष्ण अपने बड़े भाई के साथ देवकी जी के भवन में ही रात्रि-विश्राम करते हैं। गोपों को इसमें कुछ अटपटा नहीं लगा। वे वसुदेव को पिताजी और देवकी को माता जी कहते हैं, इसमें भी कुछ खटकने की बात नहीं थी। श्रीबलराम जैसा कहते-करते हैं, कृष्ण सदा से उनका अनुकरण करते रहे हैं। अब भी करते हैं तो असंगति क्या? वे व्रज में रोहिणी जी को भी तो ‘माँ’ कहते हैं। बड़े भाई से पृथक वे रह नहीं पाते। आजकल कृष्णचन्द्र बहुत व्यस्त रहते हैं। महाराज उग्रसेन उनसे पूछे बिना कोई काम नहीं करना चाहते। बचपन से कन्हाई बहुत चतुर, बहुत बुद्धिमान है। निर्वासित युदवंशी प्राय: नित्य आते हैं और वही उनकी व्यवस्था करता है। उन्हें सम्पत्ति गृह, वाहनादि दिलाता है। वही आजकल यहाँ नगर की, सेना की, सभासदों की सम्पूर्ण व्यवस्था का संचालक हो रहा है। ‘कृष्ण अपना है। इस अत्यधिक व्यस्तता में भी प्रतिदिन कई-कई बार मिल जाता है। पता नहीं क्या–क्या बतला जाता है। इतनी अदभुत बातें करता है। यह व्रज का युवराज मथुरा का स्वत: सिद्ध संचालक बन गया है।’ ‘महाराज उग्रसेन का अतिशय स्नेह है श्याम पर। कंस ने राज्य की सारी व्यवस्था ही अस्त–व्यस्त कर दी थी। कृष्ण उसे सम्हालने में लगा है। वह इसमें प्रसन्न है तो कुछ दिन ऐसे ही सही। दो-चार दिन में यह उत्साह अपने-आप शिथिल हो जायेगा और अभी मथुरा को भी तो कृष्ण के कार्यों की–सहयोग की आवश्यकता है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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