भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
मथुरा सुख बसी
लोग लौटने लगे हैं। बुलाये हुए लोग तो आ ही रहे हैं, बिना बुलाये लोग भी एक-दूसरे से पता पाकर स्वत: लौट रहे हैं। ऐसे लोग भी आ रहे हैं जो मथुरा के नहीं थे; किन्तु श्रीकृष्ण के सामीप्य का-उनकी प्रजा कहलाने को प्रलोभन जिनमें जागा है। ऋषि-मुनि-तापस बड़ी संख्या में आ रहे हैं। वेदज्ञ-विद्वान ब्राह्मण आ रहे हैं। साधक, सिद्ध, तापस आ रहे हैं। भगवदभक्त आ रहे हैं। ऐसा वर्ग सुविधा कहाँ चाहता है। ये आते हैं, मिलते हैं और यमुना के इधर या उधर स्वयं अपनी झोपड़ियाँ अपने चुने स्थानों पर बना लेते हैं। पता लगा-लगाकर राजसेवक इनकी सुविधा की व्यवस्था करते हैं–कर रहे हैं। यदुवंशियों के विभिन्न कुलों के लोग आते हैं। वे सपरिवार आते हैं। उनके सेवक, पशु–कुछ नवीन सुहृद भी आते हैं। ये सम्मानित जन हैं। इनमें-से अधिकांश के भवन हैं मथुरा में। कंस ने उनके भवनों में कुछ परिवर्तन कर दिया, कुछ ध्वस्त कर दिये, कुछ को अन्य किसी कार्य में ले लिया। उनके भवन अविलम्ब रिक्त करके देने ही नहीं हैं, उन भवनों को उपयुक्त बनवा देना है, भवनों में आवश्यक सामग्री–वस्त्र, बर्तन, अन्न आदि पहुँचा देना है। सबके सेवकों तक की व्यवस्था करनी है। पशु-धन देना है सबको। साथ ही सबको उनके उपयुक्त कार्य देना है राजकीय सभा में, सेना में अथवा प्रशासन में। बिना उपयुक्त सम्मान एवं कार्य पाये व्यक्ति कहीं कैसे रहेगा? वैश्य वर्ग और कलाकार आ रहे हैं। उनको निवास देना है। आपण में उपयुक्त स्थल पर दूकान देनी है। जैसे भी उनका व्यवसाय जमे, उनकी कला विकसित हो, वह सम्पूर्ण सुविधा देनी है। सबके गृह–नवीन आगतों के गृह भी राजकोष से आये व्यक्ति की सम्मति तथा सुविधा के अनुसार बनवायें, सजाये, विस्तीर्ण किये जा रहे हैं। केवल राजपुरुषों की सेवा से ही तो सन्तोष नहीं होता। श्रीकृष्णचन्द्र स्वयं प्रात: प्रत्येक आगत व्यक्ति से मिलते हैं। नवीन भवनों, आश्रमों, आपण का भी निरीक्षण करते हैं। प्रत्येक की सुविधा पूछते हैं। एक-एक करके सेवकों तक से मिलकर उनकी आवश्यकता, सुख-सुविधा की जानकारी लेते हैं। आगत लोग–त्यागी, सहज सन्तोषी ब्राह्मण ही नहीं, यादव, वैश्य-वर्ग, सेवक, कलाजीवी–सबके सब श्रीकृष्णचन्द्र के विनय, शील, स्वभाव से विमुग्ध हैं। सब स्वयं उद्योग में लग गये हैं। कोई किसी अभाव का अनुभव नहीं करता। सबको लगता है कि राजपुरुष उन्हें अत्यधिक, अनावश्यक धन, पदार्थ, पशु दे रहे हैं। मनुष्य को पदार्थ पुष्ट नहीं करते। मनुष्य की अपनी आवश्यकता बहुत थोड़ी होती है। उसे सम्मान मिले, समाज के मुख्य व्यक्ति उसका ध्यान रखें तो वह अत्यल्प में सन्तुष्ट हो जायेगा। श्रीकृष्णचन्द्र प्रतिदिन प्रत्येक से मिलते हैं और भगवतीश्री तो उनकी सदा की सेविका हैं। मथुरा आये किसी को नहीं लगता कि जो सम्पत्ति, भवन, सामग्री, सुविधा उसे मिली है, उसका जीवन में उसने स्वप्न भी देखा था। मथुरा सुख बसी–शीघ्र सुखी हो गयी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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