भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
कारागार से त्राण
कंस ने अपने को निर्दोष बतलाया– ‘मनुष्य ही झूठ नहीं बोलते, देवता भी झूठ बोलते हैं। देवताओं की बात पर ही विश्वास करके तो मैंने अपनी बहिन के पुत्र मारे। लेकिन मैंने क्या मारे उन्हें–मैं तो निमित्तमात्र बना, जीव तो अपने ही कर्म का फल भोगते हैं। सभी प्रारब्ध के वश में हैं। अत: आप महाभाग उनके लिए शोक न करें। दैव का विधान ही ऐसा था।’ ‘महात्मा हैं आप तो’ कंस ने अधिकतम विनीत बनकर कहा– ‘जानते ही हैं कि जब तक मैंने मारा या मैं मारा गया, यह कोई मानता है तब तक अपनी इस दृष्टि के कारण ही वह अज्ञानी वधिक या वध्य बनता है, अन्यथा तो आत्मा न मरता, न मारा जाता।’ ‘आप साधुपुरुष हैं। साधु दु:खियों पर दया करते हैं। आप दोनों मुझ दुरात्मा को क्षमा करें।’ कंस रो पड़ा और उसने वसुदेव जी तथा देवकी के भी चरण पकड़ लिये। सहज सरला देवकी जी ने भाई को रोते देखा तो उनका हृदय द्रवित हो गया। वसुदेव जी ने भी प्रसन्न मुख से कहा– ‘महाभाग! आप ठीक कहते हैं। मनुष्य में अपने और परायेपन का भेद अज्ञान से ही होता है। इस अज्ञान से ही हर्ष, शोक, भय, द्वेष, लोभ, मोह या भेद के वशीभूत होकर पार्थक्यदर्शी प्राणी परस्पर एक-दूसरे को मारते हैं।’ ‘भैया! आप दु:खी न हों।’ देवकी जी ने कहा– ‘जो दैव को कराना था, हो गया। अब आप शोक त्याग करें।’ कंस की चिन्ता मिटी। वह सचमुच दु:खी हुआ था, अभिनय नहीं किया था उसने; किन्तु उसके अन्तर्मन में गगन में दीखी देवी का भय भी जमा बैठा था। वसुदेव-देवकी की कृपा मिल गयी तो देवी का भय गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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