भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
योगमाया
‘दुष्ट!’ डाँटा उस महाशक्ति ने कंस को– ‘मूर्ख! मेरी हत्या के प्रयत्न से तुझे क्या मिला?’ कंस काँप रहा था थर-थर। स्वेद से भीग गया था। वह भले सुर-विजयी हो, इस महाशक्ति के तेज ने ही उसे हतप्रभ कर दिया था। अब यदि यह कंस पर कूद पड़े–अपना पाश या शूल ही फेंके वहाँ से–कंस ऐसा हो रहा था जैसे वध्य पशु खड़ा हो। ‘तेरा वध करने वाला तेरा शत्रु धरा पर कहीं प्रकट हो चुका।’ देवी के इस वाक्य ने कंस को उस समय तो मानो अभय ही कर दिया। कंस आश्वस्त हुआ कि ये उसे नहीं मारेंगी। वे महादुर्गा कह रही थीं– ‘तू व्यर्थ अब कृपणा देवकी को कष्ट मत दे! दीन-असहायों की हत्या मत कर!’ अचानक कंस ने देखा कि वज्रधर देवराज इन्द्र देवताओें से घिरे गगन में प्रकट हुए और उन्होंने देवी की स्तुति प्रारम्भ की। कंस केवल देखता रहा। उसके मुख से शब्द नहीं निकल सकता था। वह अब भी काँप रहा था– ‘देवकी-वसुदेव को इन्होंने माता-पिता बना लिया है। अब ये क्रुद्ध हों मुझ पर…..।’ इन्द्र की स्तुति से महाशक्ति सन्तुष्ट हुईं। देवराज ने प्रार्थना की– ‘आप अमरावती को एक बार पवित्र करें। वहाँ हम सब आपका अभिषेक कर लें, फिर धरा पर आपकी स्थापना मैं कर दूँगा। आप मेरी बहिन हैं उपेन्द्र के नाते।’ सस्मिता, सुप्रसन्ना दुर्गा सुरों के साथ अदृश्य हो गयीं। देवर्षि ने बतलाया-उनका सुरों ने स्वर्ग में महाभिषेक किया। देवगुरु बृहस्पति ने सविधि पूजा सम्पन्न करायी उनकी। देवराज इन्द्र ने ही विन्ध्य पर्वत पर उनकी स्थापना की। वैसे धरा पर अनेक पीठों में अनेक रूपों एवं नामों से प्रकट हुईं। वे इच्छानुसार रूपधारिणी, भक्तभयहारिणी, त्रैलोक्यचारिणी, वरदायिनी, असुर-सहारिणी हैं। वे कहीं कुमारी हैं, कहीं वैष्ण्वी, कहीं शारदा और कहीं अम्बिका; किन्तु हैं ये अनुजा जनार्दन की। मांस-रहित बलि एवं पूजन प्रिय है उन्हें। भाद्रकृष्ण नवमी उनका जयन्ती-महोत्सव, महापूजन पर्व है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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