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भागवत सुधा -करपात्री महाराज
यह भी शर्त नहीं कि वे हमसे प्यार करें। हमसे द्वेष करते हों चाहे हम पर बहुत अकारणकरुण करुणावरुणालय हों, वे श्री श्यामसुन्दर ही तो अब मेरे सदा सर्वदा के लिए सर्वस्त्र है, प्राणधन हैं।
मां धवो यदि निहन्ति हन्यतां, बान्धवो यदि जहाति हीयताम्।
साधवो यदि हसन्ति हस्यतां माधवः स्वयंमुरीकृतो मया।।[1]
मेरे पति यदि मुझे मारते हों तो भले ही मारें। मेरे भाई-बान्धव यदि छोड़ते हों तो सहर्ष छोड़ दें। साधु गण भी यदि हँसी उड़ाते रहें। क्योंकि मैंने तो श्रीकृष्ण को विचार पूर्वक स्वयं ही अंगीकार किया है।)
(‘माधवो’ पाठ मानकर--)‘‘मेरे प्राणनाथ मेरे प्रियतम श्याम सुन्दर ब्रजेन्द्र नन्दन मदन मोहन माधव अगर हमारा बध करना चाहते हों तो भले करें, उनकी मर्जी। हमने तो उनको अपना सर्वस्व आत्मा निवेदन कर दिया। हमारे बन्धु-बान्धव यदि हमारा परित्याग कर देते हों तो भले ही करें। साधु-सन्त हँसते हों तो भले हँसें, खूब हँसें, पर मैंने तो माधव को अंगीकार कर लिया। डंका बजाकर अपने मदन-मोहन प्रियतम को, अपने प्राणधन को अंगीकार कर लिया।’’ यहाँ भी कोई शर्त नहीं। शुद्ध प्रीति इसी ढंग की होती है। ब्राह्मण लोग यज्ञ करके, तप करके, दान करके, जप करके, ब्रत करके इसी परात्पर परब्रह्म विषयिणी विविदिषा का लाभ करते हैं। भगवत्तत्त्ववेदन की उत्कट उत्कण्ठा उत्पन्न हो जाय, इसी के लिए पूर्ण यज्ञ, पूर्णतप, पूर्णदान, पूर्णव्रत है। क्यों कि और इच्छाएँ हो सकती हैं, भगवत्तत्त्ववेदन की उत्कट उत्कण्ठा बडे़ भाग्य से उत्पन्न होती है। साक्षात्कार की कहानी अलग है। श्रवण, मनन, निदिध्यासन की कहानी अलग है। ख़ाली विविदिषा भी दुर्लभ हैं। बुभुक्षा[2] सबको हो जायगी, पर मुमुक्षा कहाँ? किसी के सिर में आग लगी, कोई बोला- ‘देखो इस रास्ते से चले जाओ सरोवर मिलेगा, उसमें गीता लगाओ।’ चला सरोवर में गीता लगाने। सिर में, दाढ़ी-मूँछ में आग लगी थी, उधर बीच में ‘टी-पार्टी’ हो रही थी, नर्तकी नृत्य कर रही थी। मित्रों ने कहा- ‘भाई दो मिनट टी-पार्टी में शामिल हो लो। नृत्य देख लो।’ भला बताओ? जिसके सिर में आग लगी हुई है, वह सिनेमा देखेगा या टी-पार्टी में बैठेगा या किसी से इधर-उधर आँख मिलाएगा? कुछ नहीं। ऐसे ही जिसको बुभुक्षा के तुल्य, पिपासा के तुल्य विविदिषा हो जाय तो ‘को न मुच्येत बन्धनात्’ दुनियाँ में कौन प्राणी है जो बन्धन से मुक्त न हो जाय। अवश्य ही बन्धन से विमुक्त हो जायगा। ऐसी इच्छाओं के लिए यज्ञ, दान, तप करना पड़ता है।
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