भागवत सुधा -करपात्री महाराजइस प्रकार से जब सर्वत्र द्रष्टा, श्राता, मन्ता और विज्ञाता का प्रकाश है तो जो परमात्मा ही द्रष्टा, श्रोता, विज्ञाता है, वह क्यों न स्वप्रकाश हो? इसलिए अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड नायक सर्वद्रष्टा, सर्वान्तरात्मा, सर्वसाक्षी भगवान स्वप्रकाश हैं। यह सब होने पर भी सभी भगवान को नहीं जानते। अज्ञानी से पूछो कि परब्रह्म को जानते हो? पूर्ण ब्रह्म जानासि?’ वह कहेगा, नहीं। इसलिए अज्ञान मानना पड़ा। तो अज्ञान कैसा? जैसा कि हमने पहले कहा। जैसे- प्रचण्ड मार्तण्ड मण्डल में उलूक की दृष्टि से तमिस्त्रा रात्रि है, इसी प्रकार अज्ञ प्राणियों की दृष्टि से अखण्ड स्वप्रकाश भगवान में भी अज्ञान है। इसलिए गोस्वामी जी कहते हैं- आनन्द सिन्धु मध्य तव वासा। आनन्द सिन्धु के मध्य में तेरा निवास है। तेरे भीतर आनन्द, तेरे मध्य में आनन्द, तेरे बाहर आनन्द, सब कुछ आनन्द, सब कुछ आनन्द ही आनन्द है। आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्। (आनन्द ब्रह्म है- ऐसा जाना, क्योंकि आनन्द से ही ये सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होने पर आनन्द के द्वारा ही जीवित रहते हैं और प्रयाण करते समय आनन्द में ही समा जाते हैं।) आनन्द समुद्र से ही सारा ब्रह्माण्ड पैदा हुआ। उसी में अनन्त ब्रह्माण्ड स्थित है। उसी में अनन्त ब्रह्माण्ड प्रविलीन होता है। इसलिए सर्वानन्द स्वप्रकाश भगवान आनन्द हैं। लेकिन लोक आनन्द को नहीं जानते। अगर आनन्द को जान लें तो आनन्द के भिखारी बनकर गली-गली घूमें? स्त्री का आनन्द चाहिए, पुत्र का आनन्द चाहिए। धन-धान्य का आनन्द चाहिए, समृद्धि का आनन्द चाहिए। नाना प्रकार के आनन्दों की खोज में भटक रहे हैं। इसलिए उस आनन्द को नहीं जानते। उस आनन्द को जानने के लिए स्वप्रकाश भगवान ही दो बन गये। एक प्रकाश्य एक प्रकाशक। स्वमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम। (हे पुरुषोत्तम! हे भूतभावन! हे जगत्पते! हे देवदेव! स्वयं आप ही अपने निरतिशय ज्ञान, सामर्थ्य और ऐश्वर्य को जानते हैं।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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