विषय सूचीभागवत सुधा -करपात्री महाराजसप्तम-पुरुष 4. धर्मनिरपेक्ष या धर्मसापेक्ष?श्रीशुक्राचार्य के लाख समझाने पर भी सत्य का त्याग नहीं किया। शुक्राचार्य महाराज नाराज हो गये। शाप दे दिया। पर बलि ने दान कर दिया। फिर क्या बात थी। भगवान ने बलि का दो पग में सब कुछ ले लिया। तृतीय पग का दान बाकी रहा। भगवान बोले- ‘तुमने तीन पग का दान दिया था न? दो पग में मैंने तेरा सब कुछ ले लिया। एक पग तो बाकी ही रहा।’ भगवान के पार्षदों ने वारुण-पाश में राजा बलि को बाँध दिया। राजा बलि के भक्त-सेवक युद्ध करने को उद्यत हुए। विष्णु के महान पार्षदों ने सब को खदेड़ कर भगा दिया। बलि ने समझाया- ‘भाई इस समय युद्ध का काल नहीं है। काल भगवान हमारे प्रतिकूल हैं। इस समय युद्ध मत करो। जो लोग कभी सामने खड़े नहीं होते थे वे ही आज सामने हैं। जोरों से निनाद कर रहे हैं। कोई बात नहीं।’ यह सब प्रपंच चलता रहा। ब्रह्मा जी आये, बोलना चाहते थे। इतने में विन्ध्यावली जो बलि की पत्नी थी, वह बोल पड़ी-- क्रीडार्थमात्मन इदं त्रिजगत् कृतं ते अर्थात भगवन! आपने अनन्त ब्रह्मण्डात्मक आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक प्रपंच अपने क्रीडा के लिये बनाया है- खेल खेलने के लिये खिलौना बनाया है। दुर्बुद्धि ही आपके बनाये खिलौने को अपना मान लेते हैं। यह स्वर्गलोक हमारा, यह धरती हमारी, यह नन्दन वन हमारा ऐसा मानकर गड़बड़ करते हैं। प्रभो कर्तृत्व भी आपके अनुग्रह से ही होता है। अधिष्ठान बिना कर्ता कहाँ से आया? कर्तृत्व का आरोप किसी अधिष्ठान में होगा। ब्रह्मा जी ने कहा- भूतभावन! देवदेव! जगन्मय! (आप समस्त प्राणियों के जीवन दाता हैं, स्वामी हैं, जगत् के रूप में भी आप ही अभिव्यक्त हैं, देवों के भी देव आप ही हैं। इसे छोड़ दीजिये। आपने इसका सर्वस्व ले लिया है, अतः अब यह दण्ड का पात्र नहीं है। इसने अपना सम्पूर्ण भू-लोक आपको समर्पित कर दिया है। पुण्य कर्मों से उपार्जित स्वर्गादि लोक अपना सर्वस्व और आत्मा तक आपकी समर्पित कर दिया है। साथ ही ऐसा करते समय यह धैर्य से च्युत बिलकुल नहीं हुआ है। प्रभो! जो मनुष्य सच्चे हृदय से कृपणता को छोड़कर आपके चरणों में जल का अर्ध्य देता है और केवल दूर्वादलों से भी आपकी सच्ची पूजा करता है, उसे भी उत्तम गति की प्राप्ति होती है। फिर बलि ने तो बड़ी प्रसन्नता से धैर्य और स्थिरतापूर्वक आपको त्रिलोकी का दान कर दिया है। तब यह दुःख का भागी कैसे हो सकता है?) तुलसीदलमात्रेण जलस्य चुलकेन वा। अर्थात् भगवान् ऐसे दयालु हैं कि वे भक्ति से दिये हुए चुल्लू जल तथा एक तुलसी के पत्र द्वारा ही अपनी आत्मा को भक्तों के लिये दे देते हैं। आपके मंगलमय चरणों में जो तुलसीदास, दूर्वादल गंगाजल अर्पण करते हैं, वे आपको खरीद लेते हैं। इतने तो अपना सर्वस्व ही आपके श्रीचरणों मं अर्पित कर दिया है। यह सब क्रम चल रहा था। भगवान ने बलि से कहा- ‘हमारा तीन पग पूरा नहीं हुआ।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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