सूफ़ी संतों की प्रेमो पासना 5

सूफ़ी संतों की प्रेमो पासना

पं. श्रीकृष्णदत्तजी भट्ट

सात मुक़ाम

चलने लगा, तो वह शख्स पूछ ही तो बैठा - ‘हुजूर, हलुवा तो वही था। पहले आपने इसे लौटा दिया था। बाद में इसको कबूल कर लिया! आखिर ऐसा क्यों?’

फ़कीर हँसा! बोला - ‘बेटे! उस वक्त मेरे मन में यह ख्वाहिश पैदा हुई थी कि कहीं से हलुवा आये तो खाऊँ। नफ़्स की ख्वाहिश से कोई चीज़ मिले तो उसे हर्गिज नहीं लेना चाहिये, वर्ना गुनहगार बनना पड़ता है। बाद में जब तू यह थाल दुबारा लाया तो मेरी पहले की ख्वाहिश मर चुकी थी। मैं समझ गया कि मालिक ने इसे भेजा है। इसको लौटाना गुनाह होता; इसलिये मैंने मज़े ले-लेकर उसे खाया।

यह है तवक्कुल और यह है रज़ा।

इन सात मुक़ामों को पार करके मुरीद मारिफ़त पाने का अधिकारी बनता है।
इसके आगे की मंजिल है।

हक़ीक़त

हक़ीक़त - साधन नहीं, साधक की परम अनुभूति है। यहाँ पहुँच कर साधक संसार के दुःख-सुख से मुक्त हो जाता है। अल्लाह के सिवा उसे और कुछ नहीं सुहाता।

किसकी शादी किसका ग़म,
हू अल्लाहू दम पर दम!

सूफ़ी साधना में प्रेम की ही बलिहारी है। रात-दिन प्रेमास्पद का चिन्तन करना, उसी की लौ लगाये रहना साधक का काम रहता है। प्रेमी जब प्रेम रस में डूब जाता है तो सारी दुनिया अलग खड़ी रहती है। सारे भेद भाव डूब जाते हैं। न किसी की चिन्ता, न किसी की फिक्र, न किसी का डर, न किसी से कोई वास्ता। उसे तो घट-घट में उसी प्यारे की, उसी प्रियतम की झाँकी दीख पड़ती है।

आशिक़ों को इम्तियाज़े दैरो क़ाबा कुछ नहीं।
उसका नक़्शे पा जहाँ देखा वहीं सर पर रख दिया!।।

सूफ़ी उपासना में प्रेम ही मूल मन्त्र है। उस प्रेम की प्राप्ति के लिये हृदय को शुद्ध बनाना पड़ता है। तौबा से शुरुआत होती है -


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