श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
78. अतिथि दुर्वासा
महर्षि की कृपा-दृष्टि से दोनों के श्रीअंगों पर पड़े कशाघात के चिह्न मिट चुके थे। श्रीकृष्णचन्द्र महर्षि को लेकर महारानी के साथ अपने सदन में चले गये। यह समाचार श्रीबलराम को अपने भवन से प्रस्थान करने से पूर्व ही मिल गया। वे अनुज पर ही कुछ रुष्ट हुए- 'इन्हें तो नवीन-नवीन लीला करने की सूझती है; किन्तु बेचारी वधू को भी कष्ट देने में इन्हें संकोच नहीं होता। दुर्वासा इनकी इच्छा के बिना यह सब नाटक कर नहीं सकते थे।' इस घटना ने एक बात महर्षि दुर्वासा के सम्मुख स्पष्ट कर दी कि उनका सम्मान द्वारिका में समाप्त हो गया। कोई भी उनको पहिले के समान आदर नहीं देता था। लोग सम्मुख पड़ने पर मानो बिना श्रद्धा के मस्तक झुका लेते थे। दुर्वासा के इस कृत्य ने प्रद्युम्नादि सभी श्रीकृष्णकुमारों के मन में ऋषि-मुनियों के प्रति एक आक्रोश उत्पन्न कर दिया और इसी आक्रोश के कारण उन्होंने साम्ब को स्त्री वेश में सजाकर आगे चलकर पिण्डारक तीर्थ में आये ऋषियों का उपहास किया जो यदुकुल के विनाश का कारण बना। दुर्वासा जी ने इस व्यापक आक्रोश को लक्षित कर लिया था। उन्होंने फिर कोई ऐसा उत्तेजित करने वाला कार्य नहीं किया। बड़े भारी स्वर्णथाल में उन्हें महारानी रुक्मिणी ने खीर परसा। दुर्वासा जी भोजन करने बैठे। उन्होंने कुछ अधिक भोजन नहीं किया। साधारण जितना प्रसाद लेते थे उतना ही लेकर आचमन करके उठ गये; किन्तु उठकर उन्होंने श्रीकृष्णचन्द्र को आज्ञा दी- 'यह शेष पायस तुम अपने सम्पूर्ण शरीर में भली प्रकार मलकर मेरे सामने आ जाओ।' जो ब्रह्मण्यदेव ब्राह्मणों का चरणोदक मस्तक पर धारण करते हैं उन्हें रुद्रावतार महर्षि दुर्वासा जी का उच्छिष्ट शरीर में लगा लेने में भला क्या आपत्ति हो सकती थी। लेकिन महर्षि ने सम्पूर्ण शरीर में उच्छिष्ट पायस मलने की आज्ञा दी थी। इसके लिए वस्त्र-आभूषण सब उतारकर सर्वथा दिगम्बर होना पड़ा। ब्राह्मण का, महर्षि का पवित्र प्रसाद पादतल में कैसे लगाया जा सकता था। शेष समस्त देह में खीर मले, सिर से पैर तक श्वेत बने श्रीकृष्णचन्द्र दुर्वासा जी के सम्मुख जाकर खड़े हुए तो महर्षि ने उनको ध्यानपूर्वक देखा और बोले- 'तुमने पाद-तल में पायस नहीं लगाया, यह मुझे अच्छा नहीं लगा। जहाँ भी पायस लगा है वह तुम्हारा सर्वांग समस्त अस्त्र-शस्त्रों से अभेद्य हो गया किन्तु पाद-तल ऐसे नहीं बन सके।' महर्षि दुर्वासा पायस मलवाकर क्या कृपा करना चाहतें थे, स्पष्ट हो गया किन्तु अब तो जो होना था, हो चुका था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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