श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
57. अश्वमेध-यज्ञ
बल्वल ने अपना हृदय कड़ा किया। उसके भी यह एक ही पुत्र था। उसने सेनापति से कहा- 'तुम्हारे पुत्र को मैंने भुशुण्डि से मारा है। मेरे पुत्र को तुम शतध्नी[1] से उड़ा दो।' राजपुत्र कुनन्दन ने अपने मुकुटादि आभूषण उतार दिये। स्नान करके शरीर में तीर्थ-मृत्तिका लगायी। मुख में तुलसीदल डाला और आकर सेनापति से बोला- 'तुम राजाज्ञा का पालन करो।' लंका में विभीषण की भाँति कुनन्दन श्रीकृष्ण भक्त था यहाँ दैत्य-दानवों में। उसे उठाकर सेनापति ने शतघ्नी के मुख में डाल दिया तो बल्वल तथा दूसरे सब दैत्य रो पड़े बारूद भरकर सेनापति तांबे के गोले डाले उस भारी शतघ्नी में। 'श्रीकृष्ण! जनार्दन! भक्तवत्सल! मैं आपका, आपकी शरण हूँ।' कुनन्दन स्तुति कर रहा था- 'युद्ध किये बिना मैं इस प्रकार कापुरुष की भाँति मरूँ, यह उचित नहीं है। आपके पौत्र को युद्ध में संतुष्ट करके उनके बाणों से मेरा शरीर छूटे, मेरी इतनी प्रार्थना आप अवश्य स्वीकार करें।' शतध्नी में बत्ती देकर सेनापति ने आग लगायी किन्तु वह अग्नि बुझ गयी। अब सेनापति को लोगों ने रोका किन्तु वह अपने पुत्र का प्रतिशोध लेने पर तुला था। उसने फिर अग्नि लगायी। इस बार शतध्नी फट गयी। सेनापति के चिथड़े उड़ गये। कुनन्दन सुरक्षित दूर जा गिरे और उठ खड़े हुए। अब घोर युद्ध प्रारंभ हुआ। यहाँ युद्ध में पूरा कार्तिक मास व्यतीत हो गया। कुनन्दन ने बाणों से अनिरुद्ध का रथ नष्ट हो गया। वे स्वयं कपिलाश्रम जा गिरे और वक्ष विदीर्ण होने से मूर्च्छित हो गये। भगवान कपिल ने कर-स्पर्श करके उन्हें स्वस्थ किया। कपिल को प्रणाम करके सेतु मार्ग से वे पुनः लौटे। इस बार उनके साथ युद्ध में बल्वल के चारों मंत्री पुत्र तो मारे ही गये, कुनन्दन को उन्होंने एक बाण मारकर गगन में फेंक दिया। चार मुहूर्त आकाश में चक्कर काटकर कुनन्दन गिरा और मूर्च्छित हो गया। चार दिन मूर्च्छित पड़ा रहा। फिर युद्ध में आया और उसे अनिरुद्ध ने वीर-गति दे दी। पुत्र के मरने पर बल्वल ने माया युद्ध प्रारंभ किया किन्तु अनिरुद्ध के दिव्यास्त्रों ने सब माया तत्काल मिटा दी। इसी समय भगवान शिव गणों के साथ बल्वल की सहायता करने आ गये। लेकिन उनके सब भूत-प्रेतादि गणों को श्रीकृष्ण के पुत्र दीप्तिमान ने नारायणास्त्र का प्रयोग करके भगा दिया। अनिरुद्ध के जृम्भणास्त्र से महाभैरव सम्मोहित होकर सो गये। नन्दी ने सुनन्दन का वध कर दिया। प्रलयङ्कर के त्रिशूल के आघात से अनिरुद्ध मूर्च्छित हो गये। इससे क्रुद्ध होकर साम्ब शिव से युद्ध करने लगे। युद्ध तक तो बात ठीक थी किन्तु शिव की भर्त्सना जब वे करने लगे, सहसा श्रीकृष्णचन्द्र युद्ध में आ गये। उन्होंने पुत्र को डाँटा- 'तुम इन महेश्वर का अपमान करते हो? ये मेरे हृदय हैं, मुझसे अभिन्न हैं।' शंकर जी ने श्रीकृष्ण की स्तुति की और कहा- 'मुझे क्षमा करो। मैं भक्त परवश हूँ।' श्रीकृष्णतनय सुनन्दन को शिव ने जीवित कर दिया। अनिरुद्ध के वक्ष से त्रिशूल निकालकर उन्हें भी स्वस्थ बना दिया। उन आशुतोष के समझाने से बल्वल ने अश्व लौटा दिया। बहुत-सा द्रव्य दिया भेंट में। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तोप
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