श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
57. अश्वमेध-यज्ञ
भीषण का पिता बक वन में तप कर रहा था। देवर्षि नारद के द्वारा पुत्र के घायल होने का समाचार पाकर वह आया। वह इतना विशाल और भयानक था कि दोनों हाथों में दो वन्य गजों को शिशु के समान उठाये, उन्हें कच्चा ही चबाता आया था। अनिरुद्ध सावधान हो चुके थे। उन्होंने बक से युद्ध किया। अन्त में बक मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। भीषण की मूर्च्छा दूर हुई। उसने अपनी पराजय स्वीकार करके अश्व लौटा दिया। 'तुम्हें अश्व-रक्षक होकर साथ चलना पड़ेगा।' अनिरुद्ध ने कहा। भीषण ने प्रार्थना की- 'अभी मुझे क्षमा करें, मेरे पिता मूर्च्छित पड़े हैं। जब ये सचेत हो जायेंगे तब मैं इनकी आज्ञा लेकर जाऊँगा।' अश्व को वहाँ से विमान में चढ़ाकर भारत-भूमि पर उतारना पड़ा। अब अश्व घूमता हुआ मरूधन्व देश के दिवङ्गत नरेश के पुत्र भद्रावतीपुरीपति राजा यौवनाश्व के सामने ही जाकर खड़ा हो गया। यौवनाश्व ने अश्व पकड़ लिया। किन्तु युद्ध में हार गया। अश्व तो उसने दे दिया किन्तु उसके कोई संतान नहीं थी। इसलिए उसे अश्व-रक्षक बनाकर नहीं लिया जा सकता था। उसने वचन दिया- 'मैं यज्ञ के समय द्वारिका में उपस्थित होऊँगा।' मित्रभाव से भी कहीं-कहीं अश्व पकड़ा गया। जैसे अश्व जब अवन्ती पहुँचा तो महर्षि सान्दीपनि के आदेश से अनुविन्द ने उसे पकड़ लिया। यादव सेना के पहुँचने पर विन्द-अनुविन्द दोनों ने कहा- 'मित्रों से, अपनी बहिन के पुत्र-पौत्रों से मिलने के लिए हमने अश्व पकड़ा है। आप सब एक रात्रि यहाँ विश्राम करें।' वहाँ सबका बड़े उत्साह से सत्कार हुआ। महर्षि सान्दीपनि ने यज्ञ में द्वारिका पधारने के निमंत्रण स्वीकार किया। अनिरुद्ध ने महर्षि से आग्रह किया तो महर्षि ने उन्हें श्रीकृष्णचन्द्र का स्वरूप समझाया। अवन्ती से चलने पर राजपुर में नरेश अनुशाल्व ने दिव्यास्त्र ज्ञान के अपने गर्व के कारण अश्व पकड़ा। युद्ध में अनुशाल्व को अपने दिव्यास्त्रों का ज्ञान कुछ काम नहीं आया। उनका मंत्री साम्ब के द्वारा मार दिया गया। उनके दिव्यास्त्रों का अनिरुद्ध ने दिव्यास्त्रों से प्रतिकार कर दिया। गदा उठाई उन्होंने और गद के गदाघात से मूर्च्छित हो गये। जल छिड़क कर उन्हें सचेत करना पड़ा। अश्व तो छोड़ना ही था। अश्व-रक्षक बनकर उन्हें साथ चलना पड़ा। यहाँ तक की यात्रा में 6 महीने बीत चुके थे। अब अश्व प्राची दिशा में मुड़ा। मणिपुर नरेश ने उसे पकड़ा किन्तु फिर भयभीत होकर छोड़ दिया। देवर्षि नारद भी अपने स्वभाव के अद्भुत ही हैं। वे कब क्या करेंगे कोई ठिकाना नहीं रहता। उन्होंने जाकर बल्वल दैत्य को अश्व पकड़ने के लिए प्रोत्साहित किया। बल्वल नैमिषारण्य से ऋषियों का यज्ञ-ध्वंस करके लौटा था। घोड़ा पूर्व से लौटकर प्रयाग पहुँचा था और वहाँ त्रिवेणी पर जल पी रहा था जब बल्वल ने उसे पकड़ा। यादव सेना भी दण्डकारण्य, चित्रकूट होती आ पहुँची। उन सबके देखते-देखते बल्वल घोड़े को आकाश में उड़ा और अदृश्य हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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