श्री द्वारिकाधीश-सुदर्शन सिंह 'चक्र'
53. शाल्व-शमन
शाल्व को अपने आतङ्क-युद्ध की व्यर्थता समझ में आ गयी। द्वारिका में कहीं भगदड़ नहीं मची थी। भगदड़ मचती तो लोग भवनों से बाहर मार्गों पर आते, आहत होते, किन्तु यह कुछ नहीं हुआ। अब तो यादव महारथियों ने मोरचे सम्हाल लिये थे और उनका प्रत्याक्रमण बहुत प्रबल था। शाल्व की जो सेना भूमि पर थी उसे प्राणों पर खेलकर युद्ध करना था क्योंकि पीछे समुद्र था। सेतु का एक ही मार्ग था। सौभ से जो मायायुद्ध प्रारम्भ किया गया था- अंधड़ चलाना, धूलि-कीचड़, पत्थर, सर्प-वर्षा आदि वह प्रद्युम्न के दिव्यास्त्र के प्रथम प्रहार में ही नष्ट हो गया। भूमि पर स्थित शाल्व के सैनिक थोड़े ही क्षणों में आक्रमण करने के स्थान पर आत्मरक्षा करने की स्थिति में पहुँच गये और मारे जाने लगे। प्रद्युम्न के बाण अत्यन्त असह्य थे। वे स्वर्णपंख, लौहमुख, कठिन झुकी गाँठों वाले बाण और प्रद्युम्न ने एक साथ पच्चीस बाण शाल्व के सेनापति को, सौ बाण शाल्व को तो मारे ही, दस-दस बाण सेनानायकों को, एक-एक बाण सब सैनिकों को और तीन-तीन वाहनों को मारकर पहिले ही आघात में शत्रु-सेना में एक को भी नहीं छोड़ा जो घायल न हो गया हो। अब शाल्व को अपने भूमि पर स्थित सैनिकों को उनके भाग्य पर छोड़ देने को विवश होना पड़ा और यादव सेना ने उन्हें कुछ ही देर में समाप्त कर दिया। भूमि की ओर से निश्चित होकर यादव शूरों ने सौभ पर ध्यान केंद्रित किया। कठिनाई यह थी कि यह विमान अपनी तीव्र गति के कारण कभी एक दीखता था, कभी अनेक। कभी अदृश्य हो जाता था। कभी समुद्र के जल पर, कभी रैवतक गिरी के कभी शिखर पर, कभी आकाश में दीखता था। विमान बहुत वेग से घूम रहा था, उसकी ठीक स्थिति समझ पाना कठिन हो रहा था, किन्तु जहाँ-जहाँ विमान दीखता था, यादव महारथियों की बाण वृष्टि वहीं होती थी। वे बाण अग्नि के समान प्रज्वलित, सूर्य की किरणों के समान वेगवान, सर्प-विष के समान तीक्ष्ण थे। उनके कारण सौभ में स्थित सैनिकों की भी संख्या घटती जा रही थी। स्वयं शाल्व मूर्च्छित हो गया इस आघात से। शाल्व के मंत्री द्युमान को बहुत क्रोध आया। स्वयं उसे प्रद्युम्न ने आहत कर दिया था और उसके स्वामी शाल्व को मूर्च्छित कर दिया। द्युमान विमान के निकट आने पर कूद गया और उसने प्रद्युम्न के वक्षस्थल पर गदा मारी। प्रद्युम्न मूर्च्छित हो गये। उनकी छाती में बहुत चोट आयी थी। यह देखते ही उनका सारथि जो दारुक का पुत्र था, रथ को नगर के भीतर वेगपूर्वक हटा ले गया। प्रद्युम्न का उपचार हुआ। वे शीघ्र चेतना में आये। सावधान होते ही इधन-उधर देखकर सारथि से सरोप बोले- 'यह क्या किया तुमने? मुझे युद्ध भूमि से हटा क्यों लाये? युद्ध में विजय या मृत्यु- यादव वीर पलायन तो नहीं जानते। अब जीवन भर भाभियाँ व्यंग करेंगी कि मैं युद्ध में डरकर भागा।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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