श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
29. पारिजात-पुष्प
'स्वामिनी कोप-भवन चली गयीं।' सत्यभामा जी की दासियों ने श्रीकृष्णचन्द्र के समीप पहुँचकर उन्हें धीरे से सूचित कर दिया। श्रीकृष्णचन्द्र तुरन्त खड़े हुए। देवर्षि की सेवा में प्रद्युम्न को छोड़ दिया और कोप-भवन पहुँचे। सत्यभामा लम्बी श्वास ले रही थीं। हाथ के कमल पुष्पों को कभी नखों से नोंचती थीं, कभी मुख से सटा लेती थीं। कभी अस्वाभाविक ढंग से हँस पड़ती थीं। शैय्या से उठतीं और फिर गिर पड़ती थीं उसी पर। उन्होंने वस्त्र से मुख ढक लिया था। वे बोल उठीं- 'यह क्या है? कौन आया यहाँ? यह नीलकमल की सुरभि- यह तो उनके शरीर का दिव्यगन्ध है।' 'यह श्वेत वस्त्र क्यों? रत्नाभरणों ने कोई अपराध किया है? मुझसे तुम्हारा कोई अप्रिय हो गया?' श्रीकृष्ण समीप बैठ गये। अपने पटुके से महारानी के अश्रु पोंछे उन्होंने। 'मैं समझती थी कि तुम मेरे हो; किन्तु आज समझ गयी कि मुझ पर तुम्हारा साधारण ही स्नेह है। तुम केवल वाणी से मुझ पर स्नेह दिखलाते हो।' पति के पटुके से मुख ढककर रोते-रोते सत्यभामा जी ने कहा- 'अब यदि मैं तुम्हारे अनुग्रह की पात्र रह गयी होऊँ तो मुझे तप करने की आज्ञा दे दो; क्योंकि नारी का तप-व्रत पति की आज्ञा के बिना निष्फल होता है। पता नहीं, किस दोष से मैं, जो तुम्हारी प्रिया थी, तुम्हें अप्रिय हो गयी। तप करके मैं तुम्हारी प्रीति का सम्पादन करूँगी।' 'किसने कहा कि तुम मुझे अप्रिय हो गयी हो?' श्रीकृष्णचन्द्र ने अश्रु पोंछकर कहा- 'यह भ्रम तुम्हें कैसे हो गया?' 'मेरी दासियों ने बतलाया कि देवर्षि पहिली बार धरा पर सुरों को भी दुर्लभ कल्पवृक्ष का पुष्प लाये थे। वह पुष्प तुमने अपनी प्रियतमा को दे दिया। जो वस्तु महामणियों से भी अधिक मूल्यवान थी उससे देवी रुक्मिणी सत्कृत हुई।' 'बस इतनी बात?' श्रीकृष्णचन्द्र हँस पड़े- 'यह ठीक है कि देवर्षि ने मुझे पारिजात पुष्प दिया था। देवी रुक्मिणी समीप थीं, अतः वह पुष्प मैंने उन्हें दे दिया; क्योंकि वे उसे साभिलाष देख रही थीं। तुम भी चाहती हो वह पुष्प-पता नहीं था; किन्तु मैं तुम्हारे आँगन में स्वर्ग से लाकर कल्पवृक्ष ही लगा दूँगा। तुम उसके पुष्प दूसरों को उपहार देती रहना इच्छानुसार।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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