श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
29. पारिजात-पुष्प
श्रीकृष्णचन्द्र ने देवर्षि नारद को बुलवाया-सत्यभामा जी के सदन में, और सत्यभामा के सम्मुख ही पूछा- 'यह पारिजात तरु कैसा है?' 'मैं जिसका पुष्प ले आया था, वह अदिति की प्रार्थना पर महर्षि कश्यप ने मन्दार तरु से प्रकट किया था। इसे लोग जानते नहीं थे, अतः 'कोऽप्ययं दारु:' कहते थे। इसलिए इसका नाम कोविदार पड़ गया।' 'मुझे यह उपवृक्ष नहीं चाहिए।' सत्यभामा ने कह दिया- 'दूसरे का स्वत्व मुझे नहीं लेना। तुमने क्षीरोदघि-मन्थन करके जिसे प्रकट किया, वह मूलवृक्ष मुझे चाहिए।' 'मूलवृक्ष?' देवर्षि नारद चौंके- 'महेन्द्र उसे किसी प्रकार नहीं देंगे। क्षीरसागर-मन्थन से पारिजात प्रकट हुआ, तब भगवान शंकर ने मुझे इन्द्र के पास भेजा था। जिन देवाधिदेव ने क्षीरोदधि से निकले हलाहल को पान करके त्रिभुवन की रक्षा की थी, उन्हें भी इन्द्र ने पारिजात नहीं दिया। 'क्या?' सत्यभामा जी ने पूछा- 'इन्द्र ने इतना साहस कैसे किया?' 'वे मेरे साथ स्वयं कैलास गये। भगवान आशुतोष के चरण पकड़कर बोले- आप परिपूर्ण हैं। पारिजात शची के उद्यान में क्रीड़ा-वृक्ष बना रहे, यह अनुग्रह करें।' 'तथास्तु' औढरदानी भोले बाबा ने कह दिया। भगवती उमा को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने मन्दराच की दो सौ कोस की गुफा को पारिजात-तरुओं के वन से परिपूर्ण कर दिया। 'भगवान शंकर सर्वलोकेश्वर, सर्वसमर्थ हैं। इन्द्र पर उनका अनुग्रह उचित है और मुझ पर भी उनकी अतिशय कृपा है; किन्तु मैं उपेन्द्र भी तो हूँ। स्वर्ग के पदार्थो पर मेरा भी तो कुछ स्वत्व है।' श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- 'मैंने सत्यभामा को वचन दिया है कि इनके आँगन में क्षीराब्धि सम्भव पारिजात तरु लगा दूँगा। आप इन्द्र तक मेरा सन्देश पहुँचा दें। यदि आपके कहने से वे उसे नहीं देते तो मैं बलपूर्वक ले आने के लिए कृतनिश्चय हूँ।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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