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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
49. गोप-बालकों के साथ श्रीकृष्ण का वन-भोजन तथा भोजन के साथ-साथ मधुरातिमधुर कौतुक एवं कौशलपूर्ण विनोद
‘देखो भैयाओ! मैं विष की औषधि जानने में बड़ा ही निपुण हूँ। मेरे पास ऐसी औषधि है कि उससे सर्प चूर्ण-विचूर्ण हो जायँ इसमें तो कहना ही क्या है; जो निष्प्राण हो चुके हैं, वे भी उस औषधि के घ्राणमात्र से ही मधुपान का सुख अनुभव करने वाले व्यक्ति की भाँति परम उल्लासपूर्ण नवजीवन प्राप्त कर लेते हैं। श्रीकृष्णचन्द्र के इस उत्तर में किन-किन निगूढ़ भावों का समावेश है इसे, भोले-भाले शिशु क्या जानें? उनके पास क्रान्तदर्शी ऋषियों का हृदय तो है नहीं कि वे अपने सखा की प्रत्येक उक्ति का गूढार्थ ढूँढ़ने जायँ। उन्हें कल्पना ही नहीं हो सकती कि अघासुर जैसे सर्प की बात ही क्या, संसाररूप महासर्प से डँसे हुए, सर्वथा निश्चेष्ट हुए प्राणियों के लिये भी उनके इन्हीं कन्हैया भैया का नाम ही महौषध है, ‘कृष्ण’ नाम की पीयूष धारा किसी प्रकार कर्णरन्ध्रों में प्रविष्ट हो जाय, फिर तो संसार-सर्प का विष उतरते देर नहीं लगती; मुग्धता, मोह, मायाजन्य जड़ता नष्ट होकर ही रहेगी; आत्मस्वरूप की स्मृति हो ही जायगी; अनादि-संसरण से मुक्ति मिल ही जायगी-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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