श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
51. ब्रह्मा जी की मनोरथ सिद्धि के लिये तथा व्रज की समस्त माताओं तथा वात्सल्यमती गौओं को माँ यशोदा का सा वात्सल्य-रस प्रदान करने के लिये श्रीकृष्ण का असंख्य गोपबालकों एवं गोवत्सों के रूप में उनकी सम्पूर्ण सामग्री के साथ प्रकट होना तथा उन्हीं अपने स्वरूपभूत बालकों एवं बछड़ों के साथ व्रज में प्रवेश
पद्मयोनि तो निमित्तमात्र हुए और असंख्य व्रज-गोपियों के, गायों के परम सुदुर्लभ सौभाग्य का द्वार खुल गया। स्रष्टा के मनोरथ तो पूर्ण होंगे ही, उन्हें व्रजेन्द्र कुलचन्द्र के अमित माधुर्य का, अनन्त वैभव का आस्वादन प्राप्त होगा ही; साथ ही व्रजपुर की समस्त वात्सल्यवती गोपसुन्दरियों को एवं ब्रह्मा के द्वारा अपहृत राशि-राशि गोवत्सों की जननी उन बड़ भागिनी गायों को अपना चिर वान्छित पदार्थ मिल जायगा, व्रजराज महिषी श्री यशोदा की भाँति ही वे गोपियाँ परब्रह्म पुरुषोत्तम श्रीकृष्णचन्द्र को अपना गर्भजात शिशु मानकर, अनुभव कर अपने मनोरथ पूर्ण करेंगी तथा गायें उन्हें अपने उदरजात गोपशिशु के रूप में पाकर कृतार्थ होंगी। श्रीकृष्णचन्द्र अग्रिम व्यवस्था की बात सोच रहे हैं और उनकी सर्वज्ञता शक्ति मानो अगणित गोपसुन्दरियों के, गायों के मनोभाव का चित्र अंकित करके उनके समक्ष रखती जा रही हैं। श्रीकृष्णचन्द्र को स्मरण हो आया है- उनके आविर्भाव से लेकर अब तक किस प्रकार गोपसुन्दरियों के मन-प्राणों की उत्कण्ठा बढ़ती रही है। उन्हें अपने वक्षःस्थल पर धारण करने की, व्रजरानी की भाँति ही अपना स्तन दुग्ध पिलाकर कृतार्थ होने की कितनी तीव्र लालसा उनके अन्तस्तल में लहराती रहती है |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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