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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
21. द्वितीय माखन चोरी-लीला
उमड़-घुमड़कर काले मेघ बरस चुके हैं। इन्द्रधनुष उदित हो आया है, मानो वर्षा-सुन्दरी ने व्रजपुर के आकाश पर रत्नों की बंदनवार बाँधी हो! ग्रीष्म एवं पावस की संधि पर श्रीकृष्णचन्द्र मणिस्तम्भ-लीला-प्रथम नवनीत हरकण-लीला की झाँकी उन्मादिनी हुई वर्षा-सुन्दरी व्रज में घूम रही है; वन-उपवन, नद-नदी, हद-सरोवर-जहाँ जाती है, वहीं हृदय उमड़ पड़ता है, नाचने लगती है, परिधान का कृष्णवर्ण अंचल उड़ने लगता है। नृत्य के आवेश में वह सुदूर आकाश में उड़ गयी, अंशुमालो की किरणों ने उसके गलों में रत्नों का हार पहना दिया; किंतु अब आभूषण धारण करने की उसे लालसा जो नहीं है। अब तो वह श्रीकृष्णचन्द्र चरणांकित व्रजपुर का आभूषण स्वयं बन जाना चाहती है, अपने अंग का अणु-अणु व्रजपुर में विलीन कर देना चाहती है; इसलिये उसने किरणों के उपहार-रत्नों के हार को तोड़ डाला तथा उन सात रंगों के रत्नों के द्वारा व्रजेन्द्र की पुरी को सजाने के उद्देश्य से क्षितिज को छूती हुई बंदनवार बाँध दी। श्रीकृष्णचन्द्र इसी बंदनवार आकाश में उदित इन्द्रचाप की ओर देख रहे हैं। नन्दोद्यान की तमाल वेदिका पर अपने सखा वरूपथ की गोद में सिर रखकर, अर्द्धशायित हुए उस रत्न-धनुया की शोभा निहार रहे हैं, इन्द्रचाप का सौन्दर्य वर्णन करके सखाओं को सुना रहे हैं। पर स्वयं उनके श्रीअंगों का सौन्दर्य कितना मोहक है, इसे वे स्वयं नहीं अनुभव करते। ओह! वह सघन कुन्तलराशि, मुखचन्द्र पर बिखरी हुई अलकावली की लटें, वे विशाल नेत्र, वह मृदु बोलन, वह मधुस्त्रावी अधरयुग्म, ललित वदनारविन्द, वे चंचल चेष्टाएँ-इन्हें जो निहार सके, उसे ही भान होता है कि इस सौन्दर्य में कितनी मादकता भरी है- ऐसी मादकता जो मन-प्राण-इन्द्रियों को विमोहित कर दे, श्रीकृष्णचन्द्र के प्रत्यक्ष वर्तमान रहने पर भी, उनक रूपसुधा में नेत्रों के नित्य निमग्न रहने पर भी चित्त हाहाकार कर उठे कि ‘हाय! श्रीकृष्णचन्द्र के दर्शन मुझे कब होंगे- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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