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कानन के उस भू भाग पर हरित मृदुल तृणांकुरों का अम्बार-सा लग रहा था। ग्रीष्म का साम्राज्य होने पर भी मानो उसकी छाया तक उसे छू न सकी हो, इस प्रकार वह तृण राजि लह-लह कर रही थी और वहीं वर श्रीकृष्णचन्द्र अपने गोप सखाओं के साथ गो संचारण कर रहे थे। साथ ही उनकी परम मनोहारिणी क्रीड़ाएँ भी चल रही थीं। उनके श्यामल सुन्दर श्रीअंगों से एवं शिशुओं की प्रेमिल भाव भंगिमाओं से आनन्द का स्रोत झर-झर कर वन-प्रान्तर के कण-कण को प्लावित कर रहा था-
- चरावत बृंदाबन हरि गाइ।।
- सखा लिऐं सँग सुबल-सुदामा, डोलत हैं सुख पाइ।
- क्रीड़ा करत जहाँ-तहँ सब मिलि, अति आनंद बढ़ाइ।।
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