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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
41. दैनिक वत्सचारण-लीला का वर्णन
अब तो श्रीकृष्णचन्द्र ही वत्सचारण करने जाते हैं। उनके महामरकत श्यामल सुकुमार श्रीअंगों के अन्तराल से प्रतिदिन ही एक अभिनव ओज की धारा प्रस्फुटित होती है, दिन पर दिन वयसोचित मेवा का भी सुन्दर विकास होता जा रहा है, मन के उल्लास की तो सीमा ही नहीं रही है और जब इस अपरिसीम उल्लास की लहरियाँ वत्सचारण लीला को सिक्त करने लगती है, उल्लास के आवेश में यशोदा के नीलसुन्दर गोवत्सों से आवृत होकर अपनी परम रमणीय बाल्य-भंगिमाओं का प्रकाश करने लगते हैं, उस समय वृन्दाकानन के चर-अचर, स्थावर-जंगम समस्त अधिवासियों की दशा देखने ही योग्य होती है। सभी एक साथ ही किसी अनिर्वचनीय परमानन्द सिन्धु के अतल तल में समा जाते हैं। ऊपर आकाश में सुर-समुदाय आनन्दमूर्च्छित हो जाता है; उनकी चिरसंगिनी सुरवनिताएँ आनन्दविवश होकर बाह्य चेतनाशून्य हो जाती हैं; अमरविमान नीचे की ओर ढुलककर गिरने लग जाते हैं, कदाचित श्रीकृष्ण की अचिन्त्यलीला महाशक्ति सबका नियन्त्रण न करती होती, विशुद्ध सख्य रस भावित गोपशिशुओं के साथ श्रीकृष्णचन्द्र के इस निराविल आनन्द विहार में व्याघात न हो जाय-उस उद्देश्य से लीलाशक्ति अपने अदृश्य अचंल की छोर पर इन विमान-पंक्तियों को थाम ल लेती तो सभी धरातल का स्पर्श करते होते। और इधर पुरवासी-इनका तो कहना ही क्या है। निर्निमेष मनय, स्पन्दनहीन अवयव, जो जहाँ जैसे अवस्थित है, वह वहाँ वैसे ही रह जाता है। सबके प्राण रुद्ध हैं, बस वहाँ, उसी स्थल पर जहाँ श्रीकृष्णचन्द्र हैं, अग्रज बलराम हैं, श्यामसुन्दन के सहचर गोपशिशु हैं। व्रजदम्पति की समस्त वृत्तियाँ भी समिटकर आ जाती हैं यहीं अपने इस अनोखे वत्स के पाल सस्मित मुख कमल पर, वे भी केवल इतना ही देख पाती हैं- उनके नीलमणि राम एवं गोपाल बालकों से परिवृत रहकर गोवत्सों के साथ विचित्र विचित्र क्रीड़ा में संलग्न हैं, और यह देख-देखकर नन्दराय के, नन्दरानी के प्रत्येक रोम से आनन्द निर्झर झरने लग जाता है तथा व्रज की धरा का आन्दोच्छकास भी प्रत्यक्ष हो जाता है। न जाने कितनी बार पावस की श्याम घटाएँ उसके वक्षःस्थल का अभिषेक कर जाती थीं, पर फिर भी ग्रीष्म आता और उसकी मुख श्री झुलस जाती; किंतु अब, जब से नव जल धरसुन्दर श्रीकृष्णचन्द्र व्रज में आये हैं, तब से धरा की हरितिमा का कभी ह्रास नहीं हुआ। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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