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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
20. मणिस्तम्भ-लीला
(प्रथम नवनीत हरण-लीला)
जिनके हृदय से मन की अभिव्यक्ति हुई; जिनका चित्त ब्रह्मा, शंकर, नारद, धर्म, सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार का आश्रय है, विज्ञान एवं अन्तःकरण का आधार है; अधिक क्या, जिन विराट की ही अभिव्यक्ति ये ब्रह्मा, शंकर, नारद, सनकादि हैं; सुर, असुर, नर, नाग हैं; खग, मृग, सरीसृप हैं; गन्धर्व, अप्सराएँ हैं; यक्ष, राक्षस, भूत, प्रेत, सर्प हैं; जिनकी मूर्ति में पशु हैं, पितर हैं, सिद्ध हैं, विद्याधर हैं, चारण हैं, द्रुमपुन्ज हैं, जिन विराट की परिणति नभ-जल-थलवासी विविध जीव हैं, जिन विराट के ही रूप ग्रह, नक्षत्र, केतु, तारावलि, तडित, मेध हैं; अतीत, वर्तमान एवं भविष्य के विश्व जिनके रूप हैं; उन विराट्पुरुष[1] के भी स्रष्टा स्वयं भगवान व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र का यह नवनीत-हरण, यह मुग्धभाव, यह शैशव-नाट्य कितना विस्मित कर देने वाला है! भक्तवत्सलता का ऐसा निदर्शन व्रजेन्द्रनन्दन के अतिरिक्त और कहीं है क्या? व्रजेन्द्रनन्दन! यशोदाप्राणधन! श्रीकृष्णचन्द्र! बलिहारी है तुम्हारी ऐसी मुनिमनहरणी मोहिनी भक्तसर्वस्वदायिनी लीला की! वह बड़ भागिनी गोपसुन्दरी तो आनन्दातिरेक वश आत्मविस्मृत हो गयी। विक्षिप्त-सी हुई घर से बाहर निकल पड़ी। उसकी यह अत्यन्त अद्भुत विचित्र दशा देखकर अन्य गोपसुन्दरियाँ तो चकित रह गयीं। उसके रोम-रोम से आनन्द झर रहा है, इतना तो स्पष्ट था; किंतु इस परमानन्द का हेतु कोई भी व्रजसुन्दरी ढूँढ़ नहीं पा रही थी। सभी कारण पूछतीं, पर बताये कौन? ग्वालिन तो दूसरे मनोराज्य में रह रही थी। जब कभी यहाँ इस शरीर में आती भी तो कण्ठ रुद्ध पाती, सखियों को कुछ भी बताने में असमर्थ हो जाती। दूसरे दिन सारा भेद खुल गया, पर आज तो ग्वालिन केवल इतना ही बता सकी-बहिन! मैंने एक अनूप रूप के दर्शन पाये हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भूर्लोकः कल्पितः पद्भ्यां भुवर्लोकोऽस्य नाभितः।
हृदा स्वर्लोक उरसा महर्लोको महात्मनः।।
ग्रीवायां जनलोकश्च तपोलोकः स्तनद्वयात्।
मूर्धभिः सत्यलोकस्तु ब्रह्मलोकः सनातनः।।
तत्कटयां चातलं क्लृप्तमूरुभ्यां वितलं विभोः।
जानुभ्यां सुतलं शुद्धं जङ्घाभ्यां तु तलातलम्।।
महातलं तु गुल्फाभ्यां प्रपदाभ्यां रसातलम्।
पातालं पादतलत इति लोकमयः पुमान्।।
वाचां बह्नेर्मुखं क्षेत्रं छन्दसां सप्त धातवः।
हव्यकव्यामृतान्नानां जिह्वा सर्वरसस्य च।।
सर्वासूनां च वायोश्च तन्नासे परमायने।
अश्विनोरोषधीनां च घ्राणो मोदप्रमोदयोः।।
रूपाणां तेजसां चक्षुर्दिवः सूर्यस्य चाक्षिणी।
कणौं दिशा च तीर्थानां श्रोत्रमाकाशशब्दयोः।
तद्गत्रं वस्तुमसाराणां सौभगस्य च भाजनम्।।
त्वगस्य सपर्शवायोश्च सर्वमेधस्य चैव हि।
रोमाण्युद्भिज्जजातीनां यैर्वा यज्ञस्तु सम्भृतः।।
केशश्मश्रुनखान्यस्य श्लिालोहाभ्रविद्युताम्।
बाहवो लोकपालानां प्रायशः क्षेमकर्मणाम्।।
विक्रमो भूर्भुवः स्वश्च क्षेमस्य शरणस्य च।
सर्वकामवरस्यापि हरेश्चरण आस्पदम्।।
अपां वीर्यस्य सर्गस्य पर्जन्यस्य प्रजापतेः।
पुंसः शिश्न उपस्थस्तु प्रजात्यानन्दनिर्वृतेः।।
पायुर्यस्य मित्रस्य परिमोक्षस्य नारद।
हिंसाया निर्ऋतेर्मृत्योर्निरयस्य गुदः स्मृतः।।
पराभूतेरधर्मस्य तमसश्चापि पश्चिमः।
नाडयो नदनदीनां तु गोत्राणामस्थिसंहतिः।।
अव्यक्तरससिन्धूनां भूतानां निधनस्य च।
उदरं विदितं पुंसो हृदयं मनसः पदम्।।
धर्मस्य मम तुभ्यं च कुमाराणां भवस्य च।
विज्ञानस्य च सत्त्वस्य परस्यात्मा परायणम्।।
अहं भवान् भवश्चैव त इमे मुनयोऽग्रजाः।
सुरासुरनरा नागाः खगा मृगसरीसृपाः।।
गन्धर्वाप्सरसो यक्षा रक्षोभूतगणोरगाः।
पशवः पितर। सिद्धा विद्याध्राश्चारणा द्रुमाः।।
अन्ये च विविधा जीवा जलस्थलनभौकसः।
ग्रहर्शकेतवस्तारास्तडितः स्तनयित्रवः।।
सर्वं पुरुष एवेदं भूतं भव्यं भवच्च यत्।।(श्रीमद्भा. 2।5।38-41; 2।6।1-15)
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