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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
13. माँ यशोदा का शिशु श्रीकृष्ण के मुख में विश्वब्रह्माण्ड को देखना तथा श्रीराम कथा को सुनकर श्रीकृष्ण में श्रीराम का आवेश
प्रबोधिनी (एकादशी) का निशीथ है। कुमुद, कल्हार, कुन्द एवं मन्दार-पुष्पों से सुरभित बयार व्रजपुर के प्रत्येक मन्दिर पर बँधे हुए बन्दनवार को नचा-नचाकर स्वयं नृत्य कर रही है। इस समय व्रजपुर का प्रत्येक नारायण-मन्दिर घण्टानाद, शंख-मृदंगध्वनि, हरिकीर्तन, गायन, नर्तन से मुखरित है। व्रजेन्द्र के विष्णुमन्दिर का तो कहना ही क्या है! व्रजेन्द्र ने विविध उपचारों से अपने इष्टदेव नारायण की पूजा की। फिर समुज्ज्वल घृत वर्तिका का प्रज्वलित कर नीराजन किया। पश्चात् शारदीय कुसुमों की पुष्पांजलि समर्पित की। तदनन्तर दो प्रसाद-पुष्प हाथ में लिये, राम-कृष्ण के मस्तक पर इन निर्माल्य पुष्पों को रखने के उद्देश्य से वे पाश्ववर्ती कक्ष में चले गये। कक्ष में कर्पूरधवल शय्या पर श्रीराम एवं श्रीकृष्ण सो रहे हैं। जननी यशोदा एकाकिनी शय्या के समीप बैठी हैं। श्रीरोहिणी तो अतिथियों की अभ्यर्थना में, प्रबोधिनी-उत्सव के आयोजन में लगी हैं। आज व्रजेश्वरी विमना-सी हो रही हैं, यह व्रजेश्वर ने सायंकाल गोष्ठ से लौटते ही अनुभव किया है। किंतु समागत गोपबन्धुओं के स्वागत एवं नारायण-सेवा में तुरंत लग जाने के कारण वे अवकाश न पा सके थे कि व्रजमहिषी से इसका कारण पूछें। अब अवसर आया है। वे राम-कृष्ण के कुन्तलमण्डित गौर-श्याम भालपर पुष्पों को रखकर, कुछ क्षण अतृप्त नयनों से वह शोभा निहारकर व्रजरानी की ओर देखने लगते हैं। व्रजरानी इस समय विमना ही नहीं, अतिशय चंचल, विस्मित एवं उद्धिग्न-सी हो रही हैं। अन्तर का विक्षोभ मुखपर स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है, रह-रहकर उनका मुख म्लान हो जा रहा है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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