|
पद्मरागरचित पीढ़े पर व्रजरानी बैठी हैं। उनके निकट ही अपने कमनीय अंगों से सौन्दर्य बिखेरते हुए श्रीकृष्णचन्द्र एवं बलराम प्रांगण में खेल रहे हैं। उनका यह खेल देखकर जननी और सब कुछ भूल गयी हैं-
- बैठी जननि मनिनि पीढ़ा पर, निकट ललन तहँ खेलैं।
- गुन-मंदिर सुंदर तन साँवर, अति आनँद मन मेलैं।।
- सरद इंदु राकेस बिनिंदक बदन रूपनिधि सोहै।
- कोटिन ओज मनोज मनोहर त्रिभुवन लखि छबि मोहै।।
- चंचल चलत चारु रतनारे ललित द्दगन की आभा।
- मृग स्वंजन गंजन मन रंजन, कहै कंज की काभा।।
- अलकैं छूटि रहीं मुख ऊपर मंजु मेच घुँघरारीं।
- कल कपोल बोलनि मृदु खोलनि भ्रकुटी कुटिल पियारीं।।
- यह छबि चितै वितै दिन अपनौ, चित में और न आवै।
- जिनि दृग रूप अमीरस चाख्यौ, कहौ और क्यौं भावै।।
|
|