श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
1. जन्म-महोत्सव
व्रजेन्द्रगेहिनी यशोदा नेत्र निमीलित किये मणिमय दीवाल के सहारे चुपचाप निस्पन्द बैठी है। श्री रोहिणी जी की आँखें भी बंद हैं। अन्य समस्त परिचारिकाएँ भी निद्राभिभूत होकर वाह्य ज्ञान शून्य हो रही हैं। इसलिये दिव्य नराकृति परब्रह्म को सूतिकागार में पदार्पण करते तो किसी ने नहीं देखा, पर उनके आते ही समस्त सूतिकागार एक अभिनव चिन्मय रस से प्लावित हो गया, वहाँ का अणु-अणु उस रस में निमग्न हो गया। व्रज महिषी की लीला प्रेरित प्रसव-वेदनाजन्य मूर्च्छा, रोहिणी तथा परिचारिकाओं की योगमाया प्रेरित तन्द्रा एवं निद्रा भी उस रस के स्पर्श से चिन्मय भाव समाधि बन गयी। यशोदा के क्रोड से संलग्न सच्चिदानन्दकंद श्री हरि शिशु रूप में अवस्थित हैं। कदाचित् अनन्त सौभाग्य वश कोई कवि दिव्यातिदिव्य नेत्र पाकर उस क्षण की शोभा का अनुभव करता, अनुभव को वाणी से व्यक्त करने की शक्ति पाता, तो वह इतना ही कह सकता - मानो चिदानन्द-सुधा-रस-सरोवर में अभी-अभी एक अद्भुत अपूर्व नवीनतम नील पद्म प्रस्फुटित हुआ हो - वह अभूतपूर्व अरविन्द, जिसका आघ्राण मधुगन्ध लुब्ध भ्रमरों ने आज तक नहीं पाया था, जिसके सौरभ का अपहरण करके कृतार्थ होने का अवसर अनिल को आज तक नहीं प्राप्त हुआ था, जल जिस अरविन्द को उत्पन्न ही न कर सका था, जल के वक्षःस्थल पर खेलने की चञ्चल तरंगें जिस पद्म को प्रकम्पित करने का गर्व न कर सकी थीं, जिस कमल को आज तक कहीं किसी ने भी नहीं देखा था!
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीआनन्दवृन्दावनचम्पूः)
भाव यह है - अप्रतिम अनिन्द्य सुन्दर कृष्ण रूप का; जो माधुर्य है, वैसा इससे पूर्व के अवतारों में भक्तों (भृंगैः) ने भी अनुभव नहीं किया। कवीश्वों (अनिलैः) ने भी भगवतलीला का वर्णन करते हुए ऐसी अतुलनीय रूप माधुरी का विस्तार आज तक नहीं किया; भगवान् ऐसे अतुलनीय सुन्दर मधुर रूप से प्रापञ्चिक जगत् (नीरेषु) में कभी प्रकट ही नहीं हुए। यह रूप त्रिगुणों (ऊर्मीकणभरैः) से सर्वथा परे का है।
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