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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
47. अघासुर का उद्धार
शशांक शेखर की दृष्टि निमेष शून्य हो गयी है; सुरेन्द्र की, सुर-समुदाय की तो बात ही क्या। श्रीकृष्णचन्द्र का बाल्यविहार प्रत्यक्ष हो जाने पर किसे आनन्द मुग्ध नहीं कर देता। इस रसमन्दाकिनी की धारा किसे आत्मसात नहीं कर लेती! हाँ, एक वर्ग ऐसा अवश्य है, जिसको आँखें इस स्त्रोत का स्पर्श पाकर शीतल नहीं होतीं, अपितु और भी जलने लगती हैं। इसकी ऊर्मियों में हो निरन्तर अवगाहन करते रहने की, इन्हीं में मिल जाने की लालसा उस वर्ण के प्राणियों में उदय नहीं होती, इसके बदले वहाँ तो इस प्रवाह को समूल विलुप्त कर देने का ही भाव जाग उठत है। वह वर्ग है असुर-सिरमौर मधुपुर-सम्राट कंस का। और इस वर्ग का ही एक विशिष्ट सदस्य अघासुर अपने अधीश्वर से प्रेरित हो यहाँ आज वृन्दावन में आया है; श्रीकृष्णचन्द्र का, गोपशिशुओं का स्वच्छन्द, सुखमय विहार देख रहा है; ज्यों-ज्यों देखता है, उसके हृदय का उत्ताप बढ़ता जाता है; श्रीकृष्णचन्द्र की, उनके सखाओं की यह सुख क्रीड़ा उसके नेत्रों के लिये असह्य बनती जा रही है। यह वही अघाुसर है, जिसके बल की छाप समस्त सुरसमुदाय पर अंकित है, अमृत पान से अमर बन जाने पर भी देव समाज जिससे नित्य सशंकित है, अपने प्राणों की रक्षा के लिये जिसे निधन की नित्य प्रतीक्षा करता रहता है कब वह शुभ क्षण उपस्थित हो, अघ का अन्त हो जाय और सुधापान व्यर्थ हो जाने की सम्भावना जाती रहे!-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 10।12।13)
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