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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
21. द्वितीय माखन चोरी-लीला
अस्तु, इसी समय एक व्रजसुन्दरी वहाँ आयी। आकर बोली-‘नीलमणि! व्रजेश्वरी तुम्हें बुला रही हैं, मेरे साथ घर चलो।’ किंतु श्रीकृष्णचन्द्र को अवकाश कहाँ कि जननी के आह्वान का उत्तर भी दे सकें। वे तो उस सुन्दर धनुष के अरुण, नारंग, पीत, हरित, उज्ज्वल, नील और अरुणिमनील वर्णों का विश्लेषण करके सखाओं को दिखा रहे हैं, रंगों की गणना कर रहे हैं। व्रजसुन्दरी भी मुग्धभाव से श्रीकृष्णचन्द्र की इस बाल्यमाधुरी का रस लेने लगती है। कुछ क्षण पश्चात श्रीकृष्णचन्द्र उसकी ओर देखते हैं, तब उसे यह ज्ञान होता है कि ‘मैं केवल देखने नहीं, मैं तो बुलाने भी आयी हूँ।’ अतः स्मरण होने पर वह पुनः श्रीकृष्णचन्द्र से चलने के लिये कहती है। इस बार श्रीकृष्णचन्द्र ने उत्तर दे दिया-‘अभी तो मैं खेल रहा हूँ, नहीं जाऊँगा।’ यह गोपसुन्दरी नन्दभवन में आयी थी। इसने अन्य पुर-रमणियों के मुख से श्रीकृष्णचन्द्र के मणिस्तम्भ में अपने प्रतिबिम्ब से भ्रमित होने की लीला तथा-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीकृष्णकर्णामृतम्)
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