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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
54. चेतना लौटने पर ब्रह्मा जी का अपने वाहन से उतर कर श्रीकृष्ण के पाद-पद्मों पर लुट पड़ना और उनका स्तवन करने लगना
करुणावरुणालय व्रजराज कुमार कोमल हृदय आर्द्र हो उठा हंस वाहन की इस दयनीय दशा को देखकर। यह स्पष्ट था कि वेद ज्ञान के आदि प्रवर्तक सर्व विद्यापति पितामह ब्रह्मा में अब तनिक भी सामर्थ्य नहीं रही थी कि वे श्रीकृष्णचन्द्र के असमोर्ध्व ऐश्वर्य को इससे अधिक किंचिन्मात्र अंश भी और देख सकें। उनके नेत्रों के सामने जितना जा अंश व्यक्त था, वही इतना विलक्षण था कि वे भ्रमित हो चुके थे। तर्क उनका समाधान कर नहीं सकता था। श्रीकृष्णचन्द्र की समस्त वस्तुएँ तर्क से अतीत जो हैं। प्रपन्च निर्माता के हाथों से ही विश्व की एक से एक अधिक विस्मय जनक वस्तुएँ सृष्ट हुई हैं। पर कभी एक भी ऐसी वस्तु निर्मित नहीं हुई, जिसका अवलम्बन कर वे श्रीकृष्णचन्द्र के अचिन्त्य स्वरूप, ऐश्वर्य, माधुर्य के सम्बन्ध में तर्क करते हुए अनुमान लगा लें। प्राकृत पदार्थ ही तर्क गोचर होते हैं, हो सकते हैं। पर नन्दनन्दन तो प्रकृति से परे की वस्तु हैं। वे स्वप्रकाश परमानन्द स्वरूप हैं। उन्हें इन्द्रियाँ प्रकाशित ही कैसे कर सकती हैं। कृपापरवश हुए अपनी स्वप्रकाशिका शक्ति से वे किसी की बुद्धि में उतर आयें, तभी उन्हें कोई भले जान ले। अस्तु, स्थूल नहीं, अणु नहीं, क्षुद्र नहीं, विशान नहीं, धन नहीं, द्रव नहीं, छाया नहीं, तम नहीं, वायु नहीं, आकाश नहीं, संग नहीं, रस नहीं, गन्ध नहीं, नेत्र नहीं, कर्ण नहीं, वाणी नहीं, मन नहीं, तेज नहीं, प्राण नहीं, मुख नहीं, माप नहीं- इस प्रकार समस्त अपरमात्म वस्तु मायिक पदार्थों का निषेध कर ब्रह्म का प्रतिपादन करने वाली श्रुतियों के द्वारा जिनके सच्चिदानन्द स्वरूप का संकेत प्राप्त होता है, उन्हें ब्रह्मा ने उन्हीं की अपार कृपा के बल पर प्रत्यक्ष देखा, उनके अपरिसीम ऐश्वर्य समन्वित रूप को देखा। फिर भी वे स्थिर, विकृति शून्य रह सकें, यह सम्भव हो नहीं। वे मोहित हुए ही और ऐसे हुए कि क्या देख रहे हैं, यह प्रज्ञा खोकर उस दिव्यातिदिव्य झाँकी के दर्शन में भी असमर्थ हो गये। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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