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व्रजेश्वरी दधिमन्थन कर रही हैं। उस दधिमन्थन की ध्वनि में अपनी कटि किंकिणी एवं पदनूपुरों का स्वर मिलाकर नीलमणि नृत्य कर रहे हैं। आकाश पथ में सुरगण, सुरबालाएँ नीलमणि को निहारकर आनन्द से बेसुध होती जा रही हैं। गोष्ठ से दुग्धकलश लाने वाले गोप श्रीकृष्णचन्द्र के मुखारविन्द से प्रसरित शत-सहस्र सौन्दर्य मन्दाकिनी की धाराओं में अवगाहन कर अतिशय चंचल हो रहे हैं, दुग्धपूरित कलशों को वे यथास्थान रख नहीं पा रहे हैं, उनके हाथ एवं अंग काँप जो रहे हैं। इसीलिये कितने कलसे ढरक गये, दूध की धाराएँ बहने लगी हैं; पर उन्हें इसका भी भान नहीं, उनके नेत्र तो नाचते हुए नन्दनन्दन में डूब रहे हैं। तथा व्रजरानी के आनन्द का तो कहना ही क्या है, मन-ही-मन वे अपने नीलमणि के इस मनोहर नृत्य पर कोटि-कोटि प्राणों की न्योछावर कर दे रही हैं-
- त्यौं-त्यौं मोहन नाचै, ज्यौं-ज्यौं रई घमरकौ होई री।
- तैसिये किंकिनि-धुनि पग-नूपुर, सहज मिले सुर दोइ री।।
- कंवन कौ कठुला मनि-मोतिनि, बिच बघनहँ रह्यौ पोइ री।
- देखत बनैं, कहत नहिं आवै, उपमा कौ नहिं कोइ री।।
- निरखि-निरखि मुख नंद-सुवन कौ, सुर-बर आनँद होइ री।
- सूर भवन को तिमिर नसायौ, बल गइ जननि जसोइ री।।
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