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ग्रीष्म का अवसान हुआ और व्रजपुर की धरा को अलंकृत करने वर्षा ऋतु आ गयी। जहाँ जब कभी भी यह आती है, स्थावर-जंगम समस्त प्राणियों में ही नवजीवन का संचार होता है, उनकी वंश परम्परा बढ़ती है। सभी स्वागत करते हैं इसका। दिक सुन्दरियाँ सौदामिनी का वलय धारण-कर इसका अभिनन्दन करती हैं। सूर्य, चन्द्र अपने चारों ओर मण्डल का निर्माण करके इसे सम्मान-दान करते हैं। आकाश बारंबार गम्भीर नाद के रूप में जयघोष करता है। आनन्द मत्त पवन प्रत्येक गृह द्वार पर, गवाक्ष-जालों के समीप राशि-राशि बूँदों-की मुक्ता बिखेर कर अपना उल्लास व्यक्त करता है-
- तत: प्रावर्तत प्रवृट् सर्वसत्त्वस्मुद्भवा।
- विद्योतमानपरिधिर्विस्फूर्जितनभस्तला॥[1]
- प्रथमहिं प्रावृट प्रगटित तहाँ।
- सब जंतुन कौ उद्भव जहाँ।।
- छुभित जु गगन पवन संचरै।
- रबि अरु ससि कहुँ मंडल परै।।
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